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उत्तरस्थानं भाषाटीकासमेतम् । (८०९) और रक्तसे रुधिरका स्राव हो तांबासरीखा बहुत गरम आंशू गिरै ॥ ४ ॥ और वर्त्मसंधिक आश्रय होनेवाली शुक्लभागमें पिडिका होजातीहै, वे दाह और शूलसे युक्त तांबा सरीखे वर्णवाली मूंगके समान यह पर्वणी कहातीहै, यह भिन्नहुई रक्तको झिरातीहै ॥ ५ ॥
पूयास्त्रावे मलाः सास्रवर्त्मसन्धेः कनीनकात् ॥
स्रावयन्ति मुहुः पूर्व सास्त्रत्वङ्मांसपाकतः ॥ ६॥ और पूयास्त्रावरोगमें दोष रक्तके साहतहुये वत्मसंधिके कोईयेसे बारंबार त्वचा मांसके पाकसे रुधिरसहित राधको झिरातहैं ॥ ६ ॥
पूयालसो व्रणः सूक्ष्मः शोफसंरम्भपूर्वकः॥
कनीनसन्धावाध्मायी पूयास्त्रावी सवेदनः ॥७॥ और सूक्ष्महो शोजा संरंभपूर्वक हो कनीनक अर्थात् कोइयेकी संधिमें हो आध्मानवालाहो राध झिरै पीडाहो वह पूयालसत्रण कहाताहै ॥ ७ ॥
कनीनस्यान्तरलजी शोफो रुक्तोददाहवान्॥ और कोइयेके भीतर शोजा पीडा चभकादाह ये हों वह अलजी रोग कहाताहै ॥
अपाङ्गे वा कनीने वा कण्डूषापक्ष्मपोटवान् ॥ ८॥
पूयास्त्रावी कृमिग्रन्थिन्थिकृमियुतोऽर्तिमान् ॥ और कटाक्षसंस्थानमें अथवा कनीनकमें खाज और चारों ओरसे पलक हो पोटली सी हो ॥ ८ ॥ राध झिरै कृमियुक्त ग्रंथिहो पीडासे युक्त हो वही कृमिग्रंथि कहातीहै ।
उपनाहकृमिग्रन्थिपूयालसकपर्वणीः ॥९॥ शस्त्रेण साधयेत्पञ्चसालजीनास्त्रवांस्त्यजेत् ॥ पित्तं कुर्य्यात्सिते बिन्दूनसितश्यावपीतकान् ॥ १० ॥ मलाक्तादर्शतुल्यं वा सर्वं शुक्लं सदाहरुक् ॥
रोगोऽयं शुक्लिकासंज्ञः सशकृतेंदतृड्ज्वरः॥११॥ और उपनाह कृभिग्रंथि पूयालसक पर्वणी ॥ ९ ॥ अलजी इन पांच रोगोंको शस्त्रसे साधन करै, और जलके स्त्राववाले इन पांचों रोगोंको त्यागदेवै, और नेत्रके सफेद भागमें पित्त काली श्याववर्णवाली पीली बिंदुओंको करदेताहै ॥ १० अथवा मैलसे लिपाहुआ दर्पणवत् सब शुक्लभाग होजाताहै, और दाह तथा पीडासे युक्त होजाताहै, यह शुक्लिकासंज्ञक रोग कहाताहै, इसमें विटाका भेद तृषा उवर होतेहैं ॥ ११ ॥
कफाच्छुक्ले समं श्वेतं चिरवृद्धयधिमांसकम् ॥ शुक्लार्म शोफस्त्वरुजः सवर्णो बहलो मृदुः॥ १२॥ गुरुः स्निग्धोऽम्बुबिन्द्राभोवलासग्रथितं स्मृतम् ॥
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