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उत्तरस्थानं भाषाटीकासमेतम् । पूरितहुये दश दिनमें अपने कुलके योग्य विधानोंकरके सूतिकाका उत्थान बालकके प्रशस्त नामको करावै ॥ २२ ॥ परंतु मनशिल हरताल गोरोचन अगर चंदन इन्होंको हाथ आदि अंगोंकरके धारित करनेवाले बालकके नक्षत्र और देवतासे संयुक्त और जातिके अनुसार शर्म आदि उपनामोंसे संयुक्त और सम अक्षरोंसे संयुक्त नामको धरै ॥ २३ ॥
ततः प्रकृतिभेदोक्तरूपैरायुःपरीक्षणम्॥प्रागुदक्षिरसः कुर्य्याहालस्य ज्ञानवान्भिषक् ॥२४॥ शुचिधौतोपधानानि निर्बलानि मृदूनि च॥शय्यास्तरणवासांसि रक्षोप्नै—पितानि च॥२५॥ काको विशस्तः शस्तश्च धूपने त्रिवृतान्वितः॥ पीछे प्रकृतिभेदोंकरके विकृतिके विज्ञानीय अध्यायमें कहेहुये रूपोंकरके पूर्वको शिरवाले तथा उत्तरको शिरवाले बालककी आयुकी परीक्षा ज्ञानवान् वैद्य करै ॥ २४ ॥ पवित्र और धोये हुये गोडुओंआदिसे संयुक्त और सलवटोंसे रहित कोमल और राक्षसोंको नाशनेवाले द्रव्योंकरके धूपित शय्यामें बिछानेके वस्त्रोंको करै ॥ २५॥ वस्त्र आदिके धूप देनेमें तत्काल माराहुआ काक निशो. तसे संयुक्त किया हुआ श्रेष्ठ है ।
जीवत्खङ्गादिशृङ्गोत्थान्सदा वालः शुभान्मणीन् ॥२६॥धारयेदौषधीः श्रेष्ठा बायैन्द्रीजीवकादिकाः॥ हस्ताभ्यां ग्रीवया मूर्धा विशेषात्सततं वचाम् ॥२७॥ आयुर्मेधास्मृतिस्वास्थ्यकरी रक्षोऽभिरक्षिणीम् ॥
और वह बालक जीवतेहुये गैंडाआदिके सींगोंसे तथा जीवते हुये सोसे उपजी मणियोंको सब कालमें धारण करै ॥ २६ ॥ और शुभरूप ब्राह्मी इन्द्रायण जीवक आदि औषधियोंको हाथोंमें धारै और ग्रीवा तथा शिरमें विशेषपनेसे निरंतर वचको धेरै ।। २७ ॥ आयु बुद्धि स्मृति. स्वस्थपना इन्होंको करनेवाली और राक्षसोंको निवारित करनेवाली वच है ।
पञ्चमे मासि पुण्येऽह्नि धरण्यामुपवेशयेत् ॥२८॥
षष्ठेऽन्नप्राशनं मासि क्रमात्तत्र प्रयोजयेत् ॥ और पांचवें महीनेमें जब शुभ दिन होवै तब पृथ्वीमें बालकको बैठावै ।। २८ ॥ छठे महीने में क्रमसे अन्नके भोजनको प्रयुक्तकरै ।।
षट्सप्तमाष्टमासेषु नीरुजस्य शुभेऽहनि ॥२९॥ कर्णौ हिमागमे विध्येद्धात्र्यस्थस्य सान्त्वयन् ॥ प्रारदक्षिणं कुमारस्य भिषग्वामं तु योषितः ॥३०॥ दक्षिणेन दधत्सूची पालिमन्ये. न पाणिना॥मध्यतः कर्णपीठस्य किंचिद्गण्डाश्रयं प्रति॥३१॥
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