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(७८६)
अष्टाङ्गहृदयेयह पीनेमें और भंजनमें हितहै और इनही औषधाको बकरके मूत्रमें पीस अंजन और नस्यमें युक्त करना चाहिये ॥ ४७ ॥
देवर्षिपितृगन्धर्वे तीक्ष्णं नस्यादि वर्जयेत् ॥
सर्पिः पानादिमृद्वस्मिन्भैषज्यमवचारयेत् ॥४८॥ और देवता ऋषि पितर गंधर्व इन्होंमें तीक्ष्ण नस्य आदिक देने वार्जतहैं किंतु तहां कोमल घृत पान करवावे और औषधोको करै ॥ ४८॥
ऋते पिशाचान्सर्वेषु प्रतिकूलंच नाचरेत् ॥
सवैद्यमातुरं नन्ति क्रुद्धास्ते हि महौजसः॥४९॥ और पिशाचके विना सब ग्रहोंमें प्रतिकूल अर्थात्. उलटी बात नहींकरै, क्योंकि महान् पराक्रम वाले वे ग्रह क्रोधहुये वैद्य सहित रोगीको मारदेतेहैं ॥ ४९॥
ईश्वरं द्वादशभुजं नाथमाऱ्यावलोकितम्॥सर्वव्याधिचिकित्सन्तं जपन्सर्वग्रहाञ्जयेत् ॥ ५० ॥ तथोन्मादानपस्मारादन्यं वा चित्तविप्लवम् ॥
और बारह भुजाओंवाले और सरल दृष्टि से देखनेवाले और अच्छा करनेवाले मालिक ईश्वरको जपताहुआ पुरुष संपूर्ण ग्रहोंको जीतलेता है ॥ ५० ॥ तथा उन्माद अपस्मार अन्यचित्तका विकार इन्होंसे युक्त तिस रोगीको पवित्र करवावे ॥
महाविद्यां च मायूरी शुचिं तं श्रावयेत्सदा ॥ ५१ ॥ मायूरीमहाविद्याको निरंतर सुनवावै ॥ ११ ॥
भूतेशं पूजयेत्स्थाणुं प्रमथाख्यांश्च तद्गणान् ॥
जपन्सिद्धांश्च तन्मन्त्रान्ग्रहान्सर्वानपोहति ॥ ५२॥ और भूतेश शिवजीका पूजन करें और प्रमथसंझक तिसके गणोंको पूजै और सिद्धमंत्रोंको जपताहुआ सब ग्रहोंसे छूट जाता है ।। ५२ ॥
यच्चानन्तरयोः किञ्चिद्वक्ष्यतेऽध्याययोहितम् ॥
यच्चोक्तमिह तत्सर्वं प्रयुंजीत परस्परम् ॥ ५३॥ और जो कुछ इन अगली अध्यायोंमें कहाजावेगा और जो कुछ इस अध्यायमें कह दिया है वह सब परस्पर युक्त करना चाहिये ॥ ५३॥ इति बेरीनिवासिवैद्यपंडितरविदत्तशास्त्रिकृताऽष्टांगहृदयसंहिताभाषाटीकायां
उत्तरस्थाने पंचमोऽध्यायः ॥ ५॥
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