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(७७८)
अष्टाङ्गहृदये॥३१॥ आवेदयन्तं दुःखानि सम्बद्धाबद्धभाषिणम् ॥ नष्टस्मृति शून्यरति लोलं नग्नं मलीमसम् ॥३२॥ रथ्याचैलपरीधानं तृणमालाविभूषणम् ॥आरोहन्तंच काष्ठाश्वं तथा सङ्करकूटकम्॥३३॥ बह्वाशिनं पिशाचेन विजानीयादधिष्ठितम् ॥
और जो स्वस्थचित्त नहीं रहै एक जगह ठहरे नहीं भाजताफिरै और झूठा भोजन नृत्य गानेकी विद्या हास्य मदिरा मांसमें प्यार रक्खे ॥ ३० ॥ और हडकनेसे गरीब मुखवाला होजावे और विनाही निमित्त रोने लगे और नखोंसे शरीरको खोरे रूखा तथा बिगडा हुआ ऐसा शरीर और स्वर होजावे ॥ ३१ ॥ और दुःखोंको प्राप्तहोताहुआ कठोर कठोर वचन बोले और जिसकी स्मृति नष्ट होजावे और शून्य जिसकी रति होवे चंचलहो और नंगा रहै और मलीन रहै ॥ ३२ ।। और गलीके पडेहुये वस्त्रके टुकडोंको धारणकरै तृणोंकी मालासे विभूषित रहै और काष्ट अश्वपै चढे और कुरडी पै बैठे ॥ ३३ ॥ और बहुत भोजनकरै ऐसा पुरुष पिशाचसे गृहीत जानना ।।
प्रेताकृतिक्रियागन्धं भीतमाहारविद्विषम् ॥३४॥
तृणच्छिदंच प्रेतेन गृहीतं नरमादिशेत् ॥ __ और जिसकी प्रेत सरीखी आकृति चेष्टा गंध ये होजावें और भयंकर रूप होवे भोजन नहीं खावे ॥ ३४ ॥ और तृणोंका आच्छादन करै ऐसा पुरुष प्रेतसे गृहीत जानना ।।
बहुप्रलापं कृष्णास्यं प्रविलम्बितयायिनम् ॥ ३५॥
शूनप्रलम्बवृषणं कूष्माण्डाधिष्टितं वदेत् ॥ और जो बहुतप्रलापकरे काला जिसका मुख होजावे विलंब करके गमनकरै ॥ ३५ ॥ सूजेहुये और लंबे जिसके वृषण होजावै वह पुरुष कूष्मांडोंकरके गृहीत जानना ॥
गृहीत्वा काष्ठलोष्टादि भ्रमन्तं चीरवाससम् ॥३६॥ नग्नं धाव न्तमुत्रस्तदृष्टिं तृणविभूषणम्॥श्मशानशून्यायतनं रथ्यैकद्रुम सेविनम् ॥ ३७ ॥ तिलान्नमद्यमांसेषु सततं सक्तलोचनम् ।। निषादाधिष्ठितं विद्याद्वदनं परुषाणि च ॥३८॥
और जो काष्ट लोष्ट इत्यादिकोंको ग्रहणकरके भ्रमता फिरै फटेहुये वस्त्रोंको धारणकरै ।। ३६ ।। और नंगारहै भाजताफिरै त्रासमान जिसकी दृष्टि होवे और जो तृणोंसे विभूषितरहै और श्मशान शूना मकान गली वृक्षका सेवनकरै ॥ ३७ ॥ और तिल मदिरा मांसमें निरंतर दृष्टिको गडा देवै और कठोर वचन बोलै ऐसा पुरुष निषादोंसे गृहीत हुआ जानना ॥ ३८ ।।
याचन्तमुदकं चान्नं त्रस्तालोहितलोचनम् ॥ उग्रवाक्यं च जानीयान्नरमौकिरणार्दितम् ॥ ३९ ॥
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