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कल्पस्थानं भाषाटीकासमेतम् ।
( ७१५ )
मैंनफल आदि छहों फलों के बीजोंके समान अनूपदेशके मांसको अत्यंत कडवीतोरी के रसके संग अथवा ईखके रसमें मिश्रित किये अत्यंत तोरीके काथमें सिद्ध किये अनूपदेशके मांस के रसको नमक से संयुक्तकर पीवै ॥ ४३ ॥
कुटजं सुकुमारेषु पित्तरक्तकफोदये ॥
ज्वरे विसर्पे हृद्रोगे खुडे कुष्ठे च पूजितम् ॥ ४४ ॥
सुकुमार मनुष्योंमें जो अतिशयकरके पित्त रक्त कफ इन्होंके उदय होनेमें और ज्वर विसर्प हृद्रोग वातरक्त कुष्ट इन्होंमें श्वेतकुडाकरके वमन लेना पूजित है ॥ ४४ ॥ सर्वपाणां मधुकानां तोयेन लवणस्य वा ॥
पाययेत्कौटजं बीजं युक्तं कृशरयाऽथवा ॥ ४५ ॥ सप्ताहं वार्कदुग्धाक्तं तच्चूर्ण पाययेत्पृथक् ॥ फलजीमूतकेक्ष्वाकुजीवन्तीजीवकोदनैः ॥ ४६ ॥
सरसों और महुआके क्वाथकरके अथवा सेंधानमक के पानी करके अथवा कृशरा करके युक्त इंद्रयत्रोंका पान करावै ॥ ४५ ॥ अथवा ७ दिनोंतक आक के दूधसे भीजे हुये इंद्रयवोंके चूर्णको अलग अलग मैंनफल देवताडफल कडवीतूंची जीवंती जीवक इन्होंके पानीके संग पान करावे ४६ वमनौषधमुख्यानामिति कल्पदिगीरिता ॥
बीजेनानेन मतिमानन्यान्यपि च कल्पयेत् ॥ ४७ ॥
वमनमें प्रधान औषधोंके कल्पकी इस प्रकारसे कुछ वार्ता कही है इसी बीजकरके बुद्धिमान् वैद्य वमनके योग्य अन्यभी औपधोंको कल्पित करै ॥ ४७ ॥
इति बेरीनिवासिवैद्य पंडितरविदत्तशास्त्रिकृताऽष्टांगहृदय संहिताभाषाटीकायांकल्पस्थाने प्रथमोऽध्यायः ॥ १ ॥
द्वितीयोऽध्यायः ।
अथातो विरेचनकल्पमध्यायं व्याख्यास्यामः । इसके अनंतर विरेचनकल्पनामक अध्यायका व्याख्यान करेंगे ॥ कषाया मधुरा रूक्षा विपाके कटुका त्रिवृत् ॥ कफपित्तप्रशमनीरौक्ष्याच्चानिलकोपनी ॥ १ ॥ सेदानीमौषधैर्युक्ता वातपित्तकफापहैः ॥ कल्पवैशेष्यमासाद्य जायते सर्वरोगजित् ॥ २ ॥ निशोत कसैली है मधुर है रूखी है पाक में कडवी है कफ और पित्तको शांत करती है और रूखेपसे वातको कोपती हैं ॥ १॥ ऐसे गुणोंवाली वह निशोत वातपित्त कफको नाशनेवाले औषधों से युक्तकरी कल्पकी विशेषताको प्राप्त होके विरेचनसाध्य सब रोगोंको जीतनेवाली होजाती है ॥ २ ॥
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