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(७२२)
अष्टाङ्गहृदयेशंखिनी और शातलाके १ तोलेभर पिंडको मदिरा और नमकसे संयुक्तकर वात कफसे उपजे मोगमें और गुल्ममें प्रयुक्तकरे ॥ ५० ॥
दन्तिदन्तस्थिरं स्थूलं मूलं दन्तीद्रवन्तिजम् ॥ आताम्रश्यावतीक्ष्णोष्णमाशुकारि विकाशि च ॥५१॥
गरुप्रकोपि वातस्य पित्तश्लेष्मविलायनम् ॥ हाथीके दांतकी तरह स्थिर और स्थूल जमालगोटेकी और द्रवंतीकी जड होती है और यह कुछेक तांबेके रंग और धूम्रवर्ण होती है, और तीक्ष्ण और गरम और तत्काल कर्मको करनेवाली और विकाशी ॥५१॥और वातको अत्यंत कोपनेवाली पित्तको और कफको नाशनेवाली होती है।।
तत्क्षौद्रपिप्पलीलिप्तं स्वेयं मृदर्भवेष्टितम् ॥५२॥ शोष्यं मन्दा तपेऽग्न्यौ हतो ह्यस्य विकासिताम् ॥ तत्पिबेन्मस्तुमदिरात ऋपीलुरसासवैः॥५३॥ अभिष्यन्नतनुर्गुल्मी प्रमेही जठरी
गरी ॥ गोमृगाजरसैः पाण्डुः कृमिकोष्टी भगन्दरी ॥ ५४॥ ___और वह जड शहद और पीपलसे लेपित करी माटी और डाभसे वेष्टित बनाके स्वेदित करनी योग्य है ॥ १२॥ पीछे मंद घाममें शोषित करनी योग्य है इस जडके विकाशपनेको अग्नि और सूर्य नाशते हैं, और तिस जडको दहीका पानी मदिरा तक पीलुका रस आसव इनके संग पीरै ॥ ५३ ।। और कझकरके लिप्त शरीरवाला और गुल्मवाला और प्रमेहरोगी पेटरोगी गररोगी और पांडुरोगी और कृमिकोष्ठवाला और भगंदररोगी ये सब गाय मग बकरेके मांसोंके रसोंके संग पूर्वोतजडको पावै ॥ १४ ॥
सिद्धं तत्काथकल्काभ्यां दशमूलरसेन च॥ विसर्पविद्रध्यलजी कक्षादाहाञ्जयेद्धृतम् ॥ ५५॥ तैलं तु गल्ममेहाशोंविबन्ध कफमारुतान्।महास्नेहःशकृच्छुक्रवातसङ्गानिलव्यथाः॥५६॥
और तिस जडके काथ और कलकोंकरके सिद्धकिया और दशमूलके रसकरके सिद्ध किया घृत विसर्प विद्रधि अलजी कक्षा दाहको जीतताहै ।। ५५ ॥ और तैसेही सिद्ध किया तेल गुल्म प्रमेह बवासीर विबंध कफवातको जतिता है और महास्नेह विष्टा वीर्य अधोवातके बंधेको और वातकी पीडाको जीतताहै ॥ ५६ ॥
विरेचने मुख्यतमा नवैते त्रिवृतादयः॥
हरीतकीमपि त्रिवृद्विधानेनोपकल्पयेत् ॥ ५७ ॥ निशोत आदि पूर्वोक्त ये सब जुलाबमें अत्यंत प्रधान हैं और हरडैकोभी निशोतके विधानकरके कल्पित करै ।। ५७॥
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