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(६५८)
अष्टाङ्गहृदयेजो कामलारोगी तिलकी पीठीके समान मलको त्यागैतिस रोगीके कफसे रुके मार्गवाले पित्तको कफहारी औषधोंकरके जीते ॥ ४५ ॥
रूक्षशीतगुरुस्वादुव्यायामबलनिग्रहः।कफसम्मूच्छितो वायुयंदा पित्तं बहिः क्षिपेत् ॥ ४६॥ हारिद्रनेत्रमूत्रत्वक्तवर्चास्तदानरः॥ भवेत्साटोपविष्टम्भो गुरुणा हृदयेन च॥४७॥ दौर्बल्याल्पाग्निपार्धातिहिमाश्वासारुचिज्वरैः ॥ क्रमेणाल्पेऽ नुषज्येत पित्ते शाखासमाश्रिते॥४८॥रसैस्तं रूक्षकटम्लैःशिखितित्तिरिदक्षजैः॥शुष्कमूलकजैयूषैः कलत्थोत्थैश्च भोजयेत् ॥४९॥भृशाम्लतीक्ष्णकटुकलवणोष्णश्च शस्यते ॥ सबीजपूरकरसं लिह्याद्वयोषं तथाशयम् ॥५०॥ स्वं पित्तमेति तेनास्य शकृदप्यनुरज्यते ॥ वायुश्च यातिप्रशमं सहाटोपाद्युपद्रवैः ॥ ॥५१॥ निवृत्तोपद्रवस्यास्य कार्यः कामलिको विधिः॥ रूखा शीतल भारी स्वादु कसरत बलनिग्रह इन्होंकरके जब कफसे संमूर्छित हुवा वायु पित्तको बाहिर फेंकता है ॥ ४६ ।। तब हलदीके समान नेत्र मूत्र त्वचा इन्होंवाला और श्वेत विष्ठावाला और गुडगुड शब्द तथा विष्टंभसे संयुक्त और भारी हृदयसे संयुक्त मनुष्य होजाताहै ॥ ४७ ।। और दुर्बलपना मंदाग्नि पशलीशूल हिचकी श्वास अरुची ज्वरसे क्रमसे कुपित हुआ वायु शाखामें आश्रित और अल्परूप पित्तमें जाके मिलाप करता है ॥ ४८ ॥ तिस मनुष्यको रूखा कडुआ अम्ल रस करके और मोर तीतर मुरगा इन्होंके मांसोंके रसोंकरके और सूखी मूलीके तथा कुलथीके यूषोंकरके भोजन करावै ॥ ४९ ॥ अत्यंत अम्ल लक्ष्णि कडुआ सलोना गरम भोजन श्रेष्ठ है, और सुंठ मिरच पीपलसे संयुक्त किये बिजोराके रसको चाटै ऐसे करनेमें अपने स्थानपै ॥ ५० ॥ पित्त प्राप्त होवै तिस करके इस रोगीकी विष्ठाभी पश्चात् रंगको प्राप्त होती है, और गुडगुडाहटआदि उपद्रवोंकरके संयुक्त हुआ वायु शांत होजाता है ॥ ५१ ॥ और निवृत्त उपद्रववाले इस मनुष्यके कामलाकी विधि करनी हित है ।
गोमूत्रेण पिवेत्कुम्भकामलायां शिलाजतु ॥ ५२ ॥
मासं माक्षिकधातुं वा किटं चाप्यहिरण्यजम् ॥ और कुंभकामलारोगमें शिलाजीतको गोमूत्रके संग पीयै ।। ५२ अथवा एक महीनातक सोना माखीको गोमूत्रके संग पीवै, अथवा चांदीक मैलको गोमूत्रके संग पीवै ।।
गुडूचीस्वरसक्षीरसाधितेन हलीमकी ॥ ५३ ॥ महिषीहविषा स्निग्धः पिबेद्धात्रीरसेन तु॥ त्रिवृतां तद्विरिक्तोद्यात्स्वादुपित्ता
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