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(७०८)
- अष्टाङ्गहृदयेउदानं योजयेदूर्ध्वमपानं चानुलोमयेत्॥६॥समानं शमयेद्विद्वांस्त्रिधा व्यानं च योजयेत्॥प्राणोरक्ष्यश्चतुभ्यों पि तस्थितौ देहसंस्थितिः॥६९॥स्वं स्वं स्थानं नयेदेवं वृत्तान्वातान्विमार्गगान् उदानवायुको ऊपरके तरफ योजितकरे और अपानवायुको नीचेको प्राप्तकर ॥ ६८ ॥ समान वायुको वातनाशक औषधोंकरके वैद्य शांतक और व्यानवायुको ऊपर नीचे मध्य तीन प्रकारोंकरके योजितकर और उदान अपान समान व्यान इन चारों वायुओंसे प्राणवायुकी रक्षा करनी योग्यहै, क्योंकि तिसकी स्थितिमें देहकी स्थिति रहतीहै । ६९ ॥ ऐसे दूसरे मार्गमें प्रवृत्तहुये आवृतहुये वातोंको अपने अपने स्थानोंमें प्राप्त करै ।।
सर्व चावरणं पित्तरक्तसंसर्गवर्जितम् ॥७०॥
रसायनविधानेन लशुनो हन्ति शीलितः॥ और पित्तरक्तके संसर्गसे वार्जत आवरणको।।७०॥रसायनविधिकरके सेवित किया लहसन नाशताहै।
पित्तावृते पित्तहरं मरुतश्चानुलोमनम् ॥ ७१ ॥ पित्तकरके आच्छादितहुये उदानआदि वातोंमें पित्तको हरनेवाला और वायुको अनुलोमित करेनवाला औषध हितहै ।। ७१ ।।
रक्तावृतेऽपि तद्वच्च खुडोक्तं यच्च भेषजम् ॥
रक्तपित्तानिलहरं विविधं च रसायनम् ॥ ७२ ॥ रक्तकरके आच्छादितहुये उदान आदि वायुमें पित्तको हरनेवाला और वायुको अनुलोमित करनेवाला औषध हितहै और वातरक्तमें कहाहुआ और रक्तपित्त वातको हरनेवाला और अनेक प्रकारका रसायन औषध हितहै ॥ ७२ ॥
यथानिदानं निर्दिष्टमिति सम्यक्चिकित्सितम् ॥
आयुर्वेदफलं स्थानमेतत्सद्योर्त्तिनाशनम् ॥७३॥ ऐसे निदानके अनुसार आयुर्वेदके फलवाला और तत्काल रोगको नाशनेवाला चिकित्सितस्थान अच्छीरीतिसे कहा ॥ ७३॥
चिकित्सितं हितं पथ्यं प्रायश्चित्तं भिषग्जितम् ॥
भेषजं शमनं शस्तं पर्यायैः स्मृतमौषधम् ॥ ७४ ॥ चिकित्सित हित पथ्य प्रायश्चित्त भिषगजित भेषज शमन शस्त इन पर्यायोंकरके औषध कहाहै, अर्थात् ये सब औषधके पर्याय कहे हैं ॥ ७४ ॥ इति बेरीनिवासिवैद्यपंडितरविदत्तशास्त्रिकृताऽष्टांगहृदयसंहिताभापाटीकायां
चिकित्सितस्थाने द्वाविंशोऽध्यायः ॥ २२ ॥ यहां सिंहगुप्तका पुत्र वाग्भटविरचित अष्टांगहृदयसंहितामें चिकित्सितस्थान समाप्तहुआ ।
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