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चिकित्सास्थानं भाषाटीका समेतम् ।
( ६४३ )
पीछे मंद अम्ल नमक से संयुक्त किये यूष और मांसके रसोंकरके प्रज्वलित अग्निवाला और उदावर्तसे संयुक्त स्निग्ध और स्वेदित तिसरोगीको निरूहित करे ॥ १६ ॥ परंतु तीक्ष्णरूप अधोभागसे संयुक्त और दशमूल के रसोंसे संयुक्त निरूहबास्ति से संयुक्त करै ॥
तिलोरुवृकतैलेन वातघ्नाम्लशृतेन च ॥५७॥ स्फुरणाक्षेपसन्ध्यस्थिपार्श्वपृष्ठत्रिकार्तिषु ॥ रूक्षं बद्धशकृद्वातं दीप्ताग्निमनुवासयेत् ॥ ५८ ॥ अविरेच्यस्य शमना वस्तिक्षीरघृतादयः ॥
और तिलोंकरके और वातनाशक औषध और अम्लद्रव्य इन्होंमें पकायेहुये अरंडी के तेलकरके ॥ ५७ ॥ स्फुरण आक्षेप और संधि हड्डी पराली पृष्ठभाग त्रिकस्थान इन्होंमें शूल इन सत्रोंमें रूक्ष और विष्ठा तथा अधोवातकें बंध से संयुक्त और दीप्त अग्निवाले मनुष्यको अनुवासित करै ॥ ५८ ॥ विरेचनके अयोग्य मनुष्यको बस्ति दूध घृत ये शमन रूप प्रयुक्त करने योग्य हैं | वलिनं स्वादुसिद्धेन पैत्ते संस्नेह सर्पिषा ॥ ५९ ॥ श्यामात्रिभण्डीत्रिफलाविपक्केन विरेचयेत् ॥ सितामधुघृताढ्येन निरूहोऽस्य ततो हितः ॥ ६० ॥ न्यग्रोधादिकषायेण स्नेहवस्तिश्च तच्छ्रुतः ॥
और बलवाले मनुष्यको पित्तके उदररोग में मधुरवर्ग में सिद्ध किये घृतकर के स्निग्धकर ॥ ५९ ॥ पीछे कालानिशोत निशोत त्रिफला इन्होंसे पकाया हुआ और मिसरी शहद घृत इन्होंसे संयुक्त घृतकरके जुलाब देवे, पीछे इसरोगीको निरूहवस्ति हितहै ॥ ६० ॥ न्यप्रोधादिगणके औषधोंकर के पक्कहुआ स्नेहवस्ति अनुवासनमें हितं है ॥
दुर्बलं स्वनुवास्यादौ शोधयेत्क्षीरवस्तिभिः ॥ ६१ ॥ जाते त्वग्नि बले स्निग्धं भूयो भूयो विरेचयेत्॥ क्षीरेण सत्रिवृत्कल्केनोरुवूक शृतेन तम् ॥६२॥ सातलात्रायमाणाभ्यां शृतेनारग्वधेन वा ॥ सकफे वा समुत्रेण सतिक्ताज्येन सानिले ॥ ६३ ॥ पयसान्यतमेनैषां विदार्यादिशतेन वा ॥ भुञ्जीत जठरं चास्य पायसे नोपनाहयेत् ॥ ६४ ॥
और दुर्बल मनुष्यको प्रथम अनुवासित कर पीछे दूधकी बस्तियोंकरके शोधित करै ॥ ६१ ॥ अग्नि बलके उपजने में स्निग्ध किये मनुष्यको बारंबार जुलाब देवै, निशोत और अरंडके तेल करके पकाये हुये दूधकरके || ६२ ॥ अथवा शातला वनप्सा इन्होंकरके सिद्ध किये दूधकरके अथवा अमलतास करके सिद्धकिये दूधकरके जुलाब देने कफके उदररोग में गोमूत्र से संयुक्त किये दूधकरके जुलाब देवै, और वात कफसे उपजे उदररोगमें तिक्त घृतसे संयुक्त किये दूध
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