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सूत्रस्थानं भाषाटीकासमेतम् ।
( १०५ )
उन उन वस्तुजात द्रव्य अन्य बलिष्टोंको तिरस्कार कर आप कारणताको प्राप्त होजाता है। और विरुद्वगुणवाले द्रव्यों के संयोगमें जो अल्प वस्तु है वह भूयसा अर्थात् बलवालेसे जीती जाती है यहां गुण शब्दसे रस आदिका ग्रहण है विरोध दो प्रकारका होता है स्वरूपसे और कार्य से; स्वरूपसे गुरुलघुका शीतउष्णका । कार्यसे जैसे रूखेपन रहित उष्ण द्रव्यका संयोग वातको जीतता है जो गुणों का विरोध है सो कार्यसे होता है जैसे दूध शीतवीर्यवाला होकर भी - मधुररस के हेतु स्नेह गौरवादिकी सहायताको प्राप्त होकर वातके शमनका कार्य करता है न कि अपने बातकोप के कार्यको करता है ॥ २४ ॥
रसं विपाकस्तौ वीर्यं प्रभावस्तान्यपोहति ॥ वलसाम्ये रसादीनामिति नैसर्गिकं बलम् ॥ २५ ॥
मधुर आदि छः प्रकारके संभववाले रसोंको विपाक कार्यके करण में कुंठित करता है और समबलवाले रस और विपाकको कर्तृभूत वीर्य कुंठित करता है, और समबलवाले रस - विपाकवीर्यको प्रभाव कुंठित करता है. ऐसे रस आदिका स्वाभाविक बलहै आशय यह है कि मधुररस कटु विपाकसे तिरस्कृत होजाता है इसकारण पवनके शान्त करनेवाला अपना मधुर रसका हेतुभूत कार्य नहीं करता है किन्तु वातका कोप करनेवाला कटुविपाक हेतुकोही करता है इसप्रकार उन रसोंका विपाक अपने कर्ताको तिरस्कृत करता है और प्रभाव तो तीनोंका तिरस्कार करता है यह रसोंकी स्वाभाविकी शक्ति है ॥ २५ ॥
रसादिसाम्ये यत्कर्म्म विशिष्टं तत्प्रभावजम् ॥ दन्ती रसाद्यैस्तुल्यापि चित्रकस्य विरेचनी ॥ २६ ॥
रसआदि के समभाव में जो विशिष्ट कर्म है वह प्रभावसे उपजा जानना अर्थात् रसवीर्य और विपाककी समानतामें एकद्रव्य दूसरा कार्य और दूसरा दूसरेका कार्य करता है वह उसके प्रभावसे होता है ऐसा जानना और रस - वीर्य-विपाक करके जमालगोटाकी जड चीता के समानभी है परन्तु विरेचन करती है ॥ २६ ॥
मधुकस्य च मृद्वीका घृतं क्षीरस्य दीपनम् ॥
इति सामान्यतः कर्म्म द्रव्यादीनां पुनश्च तत् ॥ २७ ॥ विचित्रप्रत्ययारब्धद्रव्यभेदेन भिद्यते ॥ स्वादुर्गुरुश्च गोधूमो वातजिद्वातद्यवः ॥ २८ ॥
मुनक्का दाख रसआदि करके महुवाके समानभी हैं परन्तु विरेचन लाती है और घृत रस आदिकरके दूधके समानभी है परन्तु दीपन है ऐसे समान्यता से द्रव्यों का कर्म्म है परंतु विचित्रप्रत्यय - आरब्ध- नानाप्रकार द्रव्यभेदों करके भेदित किया जाता है, और स्वादु तथा गुरुरूप जो
१ रसादिकी अधिकता और स्वभावके योगसे विरेचनी होजाती है ।
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