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( ६४० )
अष्टाङ्गहृदये
और थूहर के दूध से संयुक्त किये और गरम करके शीतल किये और कड़छी से आलोडित किये गायके दूधसे ॥ ३१ ॥ उपजाहुआ और थूहरके दूधमें सिद्ध किया हुआ घृत पूर्वोक्त गुणों को देता है और १०२४ तोले गायका दूध और ३२ तोले थूहरका दूध तिन्होंको मिलाके उपजे दहीको ॥ ३२ ॥ मथकर जो घृत निकसे तिसको निशोतमें सिद्ध करै यह घृत पूर्वोक्त गुणोंको देता है और आठगुणें दूधमें सिद्ध किये ६४ तोले घृत को ॥ ३३ ॥ थूहरका दूध और तोले निशोतका कल्क अथवा पट्पल घृत इन्होंके संग पीवै ॥
एषां चानुपिवेत्पेयां रसं स्वादुपयोऽथवा ॥ ३४ ॥ घृते जीर्ण विरिक्तश्च कोष्णं नागरसाधितम् ॥ पिवेदम्बु ततः पेयां ततो
यूषं कुलत्थजम् ॥ ३५ ॥
और इन्होंके पश्चात् पेयाको अथवा स्वादुरसको तथा दूधको पीवै ॥ ३४ ॥ जीर्ण हुये वृतम अच्छी तरह विरक्त हुआ मनुष्य सूंठसे साधित और कछुक गरम पानीको पीवै पीछे पेयाको पी पीछे कुलथीके यूषको पीवै ॥ ३५ ॥
पिबेद्र्क्षख्यहं त्वेवं भूयो वाऽप्रतिभोजितः ॥
पुनः पुनः पिवेत्सर्पिरानुपूर्व्याऽनयैवच ॥ ३६ ॥
रूक्ष हुआ मनुष्य बारंबार ऐसे तीन दिनोंतक पान करे और अप्रतिभोजित हुआ फिर फिर इसी क्रमकरके घृतको पीवै ॥ ३६ ॥
घृतान्येतानि सिद्धानि विदध्यात्कुशलो भिषक् ॥
गुल्मानां गरदोषाणामुदराणां च शान्तये ॥ ३७ ॥
पहिल कहेहुये इन सब घृतोंको कुशल वैद्य गुल्म और गरदोषोंवाले उदररोगोंकी शांतिके अर्थ करै ॥ ३७ ॥
पीलुकल्कोपसिद्धं वा घृतमानाहभेदनम् ॥
तैल्वकं नीलिनीसर्पिः स्नेहं वा मिश्रकं पिबेत् ॥ ३८ ॥ हृतदोषः क्रमादल्लघुशाल्योदनं प्रति ॥
अथवा पीलुके कल्क में सिद्ध किया और आनाहको भेदन करनेवाला घृत पान करे और तैल्वकघृतको और नीदिनीपृतको अथवा मिश्रक स्नेहको पीवे ॥ ३८ ॥ हृतदोपोंवाला मनुष्य क्रम करके अत्यंत हलके और अत्यंत अल्प शालिचावलोंको खावै ॥
उपयुञ्जीत जठरी दोषशेषनिवृत्तये ॥ ३९ ॥ हरीतकी सहस्रं वा गोमूत्रेण पयोऽनुपः॥ सहस्रं पिप्पलीनां वा स्नुक्क्षीरेण सुभावितम् ॥ ४० ॥ पिप्पलीं वर्द्धमानां वा क्षीराशी वा शिलाजत ॥ तद्वद्वा गग्गुलुं क्षीरं तल्याईकरसं तथा ॥ ४१ ॥
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