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(६३८)
अष्टाङ्गहृदयेस्वर्णक्षीरी फलत्रयम् ॥द्वौ क्षारौ पौष्करं मलं कुष्ठं लवणपञ्चकम् ॥ १५॥ विडङ्गं च समांशानि दन्त्या भागत्रयं तथा ॥ त्रिवृद्विशाले द्विगुणे सातला च चतुर्गुणा ॥ १६॥ एष नारायणो नाम चूर्णो रोगगणापहः ।। नैनं प्राप्याभिवर्द्धन्ते रोगा विष्णुमिवासुराः॥ १७॥ तक्रेणोदरिभिः पेयौ गुल्मिभिर्वदरा म्बुना ॥ अनाहवाते सुरया वातरोगे प्रसन्नया॥१८॥ दधिमएडेन विट्संगे दाडिमाम्मोभिरर्शसैः॥ परिकर्ते सवृक्षाम्लैरुप्णाम्बुभिरजीर्णके ॥ १९ ॥ भगन्दरे पाण्डुरोगे कासे श्वासे गल ग्रहे ॥ हृद्रोगे ग्रहणीदोषे कुष्ठे मन्देऽनले ज्वरे ॥ २०॥ दंष्ट्रा विषे मूलविषे सगरे कृत्रिमे विषे॥ यथार्ह स्निग्धकोष्ठेन पेयमेतद्विरेचनम् ॥ २१॥ .
अजवायन हाऊबेर धनियां शोफ कलौंजी अअमोद पीपलामूल तुलसी कचूर बच ॥१४॥ चीता जीरा संट मिरच पीपल चोष त्रिफला साजीखार जवाखार पोहकरमूल कूट पांचोनमक ॥ १५ ॥ वायविडंग ये सब समान भाग लेवै और जमालगोटाकी जड तीन भाग निशोत और इंद्रायण दो भाग और शातला ४ भाग ॥ १६ ।। यह नारायण नामवाला चूर्ण रोगोंके गणको नाशताहै इसको प्राप्त होके रोग नहीं बढते जैसे विष्णुको प्राप्त होके राक्षस ॥ १७ ॥ उदररोगियोंको यह तक्रके संग पीना और गुल्मरोगियोंको यह बडवेरीके पानी के संग पीना और आनाह बातमें यह मदिराके संग पीना और वातरोगमें यह प्रसन्ना मदिराके संग पीना ॥ १८ ॥ विष्टाके बंधेमें दहीके पानीके संग बवासीरवालोंने अनारके पानीके संग परिकर्त रोगमें कांजीके पानीके संग और अजीर्णरोगमें गरम पानी के संग यह चूर्ण पीना ॥ १९॥ और भगंदर पांडुरोग खांसी श्वास गलग्रह हृद्रोग ग्रहणीदोष कुष्ठ मंदाग्नि ज्वर ॥ २० ॥ दंष्ट्राविष मूलविष गरदोष कृत्रिमविष इन सबोंमें यथायोग्य निग्धकोप्टवाले मनुष्यको यह चूर्ण पान करना योग्यहै ॥ २१॥ .
हपुषां काञ्चनक्षीरी त्रिफलां नीलिनीफलम् ॥ त्रायन्ती रोहिणी तिक्तांसातलां त्रिवृतां वचाम् ॥ २२ ॥ सैन्धवं काललवणं विप्पलीं चेति चूर्णयेत्॥ दाडिमत्रिफलामांसरसमूत्रसुखोदकैः ॥२३॥ पेयोऽयं सर्वगुल्मेषु प्लीह्नि सर्वोदरेषुच॥श्वित्रे कुष्ठेष्वअरके सदने विषमेऽनले ॥ २४॥ शोफार्शःपाण्डुरोगेषु कामलायां हलीमकावातपित्तकफांश्चाशु विरेकेण प्रसाधयेत्॥२५॥
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