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( ३६४ )
अष्टाङ्गहृदये
करताहुआ और उष्ण तथा शीतल अंगोंकरके हतकांतिवाला ॥ ७७ ॥ संज्ञासे रहित और ज्वरके वेगसे पीडित क्रोध करके संयुक्त पुरुषकी तरह देखताहुआ वह मनुष्य दोष और शब्दसे संयुक्त बेगवाले और द्रवरूप विष्टाको गुदासें त्यागता है ॥ ७८ ॥
देहो लघुर्व्यपगतक्लम मोहतापःपाको मुखे करणसौष्ठवमव्यथत्वम् ॥ स्वेदःक्षवप्रकृतियोगि मनोऽन्नलिप्सा कण्डूश्च मूर्ध्नि विगतज्वरलक्षणानि ॥ ७९ ॥
देहका हलकापन और ग्लानि, मोह, ताप इन्होंका दूर होजाना और मुखका पकजाना और नेत्र आदि इंद्रियों का अच्छापना और पीडाका अभाव और पसीना, छींक और स्वभावके योग्य - मनका रहना व अन्नकी वांछा और शिर में खाज ये सब लक्षण गये हुये ज्वरके हैं ।॥ ७९ ॥ इति बेरीनिवासिवैद्यपंडितरावेदत्तशास्त्रिकृताऽष्टांगहृदयसीहता भाषा टीकायां निदानस्थाने द्वितीयाऽध्यायः ॥ २ ॥
तृतीयोऽध्यायः ।
अथातो रक्तपित्तकासनिदानं व्याख्यास्यामः । इसके अनंतर रक्तपित्त और कासनिदाननामक अध्यायका व्याख्यान करेंगे । भृशोष्णतीक्ष्णकवम्ललवणादिविदाहिभिः ॥ कोद्रवोद्दालकैश्वान्नैस्तद्युक्तैरतिसेवितैः॥१॥ कुपितं पित्तलैः पित्तं द्रवं रक्तं च मूर्च्छिते ॥ मिथस्तुल्यरूपत्वमागम्य व्याप्नुतस्तनुम् ॥ २ ॥
अत्यंत गरम, अत्यंत तीक्ष्ण, अत्यंत कडुआ, अत्यंत अम्ल अत्यंत खारा, अत्यंत विदाही इन आदिकरके और कोदु तथा उद्दालक अन्न युक्त और अत्यंत सेवित किये ॥ १ ॥ पित्तको उपजाने चाले द्रव्योंकरके कुपित हुआ पित्त और द्रवभावको प्राप्त हुआ रक्त ये दोनों मूच्छित होके आपसमें तुल्यरूपता को प्राप्त हो शरीरमें व्याप्त होते हैं ॥ २ ॥
पित्तं रक्तस्य विकृतेः संसर्गदूषणादपि ॥ गन्धवर्णानुवृत्तेश्च रक्ते न व्यपदिश्यते ॥३॥ प्रभवत्यसृजः स्थानात्लीहतो यकृतश्च तत् ॥ रक्तकी विकृति संसर्गसे व दूषणसे गंध और वणकी अनुवृत्तिसे पित्त रक्तसे मिलके रक्तपित्त • नामसे कहता है || ३ || लोहा और यकृत् जो रक्तके स्थान हैं तिन्होंसे वह रक्त बहता है | शिरोगुरुत्वमरुचिः शीतेच्छा धूमकोल्मकः ॥ ४ ॥ छर्दिश्छ
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