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अष्टाङ्गहृदये
( ३८०)
हमोहकृत् ॥ जिह्वामूलगललोमतालुतोयवहाःशिराः॥ ४७॥ संशोष्य तृष्णा जायन्ते तासांसामान्यलक्षणम् ॥ मुखशोषो जलातृप्तिरन्नद्वेषः स्वरक्षयः॥४८॥कंठौष्ठजिह्वाकार्कश्यंजिह्वानि क्रमणक्लमः।प्रलापश्चित्तविभ्रंशस्तृड्ग्रहोक्तास्तथाऽऽमयाः॥४९॥
और बातसे, पित्तसे, कफसे, सन्निपातसे और रसके क्षयसे पांच प्रकारकी तृषा होती है ॥ ४५ ॥ और उपसर्गसे छठी तृषा होती है और सब तृषाओंमें वात और पित्त कारण है, तिस वातपित्तका कोप रसआदि सौम्यधातुके शोषसे होता है ॥ ४६ ॥ परन्तु वह सब, देहमें भ्रम, कंप, ताप, तृषा, दाह, मोहको करता है और जीभका मूल, गल, पिपासास्थान, तालुआ, पानी, इन्हों को बहनेवाली शिराओंको ।। ४७ ॥ संशोषितकर तृषा उपजती है तिन तृषाओंका सामान्य लक्षण कहा और मुखशोष जलसे तृप्ति नहीं होती और अन्नमें वैरभाव स्वरका नाश ॥ ४८ ॥ कंठ, होठ, जीभ इन्होंका कर्कशपना और जीभका निकसजाना, ग्लानि, प्रलाप, चित्तका नाश, तृषा के रोकनेमें कहे शोष, अंगकी शिथिलता, बाधियं ये सब उपजते हैं ॥ ४९ ॥
मारुतात्क्षामता दैन्यं शंखतोदः शिरोभ्रमः॥गन्धाज्ञानास्यवैरस्यश्रुतिनिद्रावलक्षयाः॥५०॥शीताम्बुपानादृद्धिश्च पित्तान्मू
स्थितिक्तता॥रक्तेक्षणत्वं प्रततं शोषो दाहोऽतिधूमकः॥५१॥ कफो रुणद्धि कुपितस्तोयबाहिषु मारुतम् ॥ स्रोतःसु सकफस्तेन पंकवच्छोष्यते ततः ॥५२॥ शूकौरवाचितः कण्ठो निद्रा
मधुरबक्रता ॥ आध्माने शिरसो जाड्यं स्तमित्यच्छद्यरोच • काः॥ ५३॥ आलस्यमविपाकश्च सर्वैः स्यात्सर्वलक्षणा ॥
आमोद्भवा च भक्तस्य संरोधाद्वातपित्तजा ॥ ५४ ॥ वातसे उपजी तृषामें कृशपना, दीनपना, कनपटियोंमें चभका शिरका भ्रमणा गंधका अज्ञान मुखका विरसपना और नींद, बल इन्होंका नाश ॥ ५० ॥ और शीतलपान के पीनेसे तृषाकी वृद्धि ये सब उपजतेहैं ॥ पित्तसे उपजी तृषामें मूर्छा मुखमें कडुआपन, लालरूप नेत्रोंका होजाना निरन्तर शोष और दाह और अत्यन्त धूमा ये उपजते हैं ॥५१॥ कुपितहुआ कफ जलको बहने वालों स्त्रोतोमें वायुको रोकताहै तब वह कफ तिसवायुकरके कीचडकी तरह शोषित होता है ॥ ५२ ॥ पीछे जवोंके तुषों करके व्याप्तहुआ कण्ठ होजाता है और नींद मुखका मधुरपना और अफारा, शिरका जडपना, शरीरपै मानो गीलाकपडा पडा है ऐसा विदित होना छर्दि और अरुचि ॥ ५३ ॥ आलस्य और अन्नआदिका नहीं पकना ये सब उपजते हैं और भोजनके रोकनेसे जो आमसे उपजी तृषा है वह वातपित्तसे उपजती है ॥ १४ ॥
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