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चिकित्सास्थानं भाषाटीकासमेतम् ।
(५९७ )
- हलका गरम कडुआ शोधितपना इन्होंसे वे रस अग्निको तत्काल दीपित करते हैं और मांसकर के उपचित मांसपने पूर्वोक्त प्रसहसंज्ञक जीवों के मांसोंके रस बलको बढाते हैं ॥ ७७ ॥ स्नेहासवसुरारिष्टचूर्णक्काथहिताशनैः॥ सम्यक्प्रयुक्तैर्देहस्य बल मग्ने वर्द्धते ॥ ७८ ॥ दीप्तो यथैव स्थाणश्च वाह्योऽग्निः सारदा रुभिः ॥ सस्नेहैर्जायते तद्वदाहारैः कोष्ठिकोऽनलः ॥ ७९ ॥ नाभोजन कायानिर्दीप्यते नातिभोजनात् ॥ यथा निरिन्ध
नो रिपो वाsन्धनान्वितः ॥ ८० ॥
स्नेइसे संयुक्त अच्छीतरह प्रयुक्त किये स्नेह आसत्र मदिरा चूर्ण काथ अरिष्ट हितभोजन इन्होंकरके शरीरका और अग्निका बल बढता है ॥ ७८ ॥ जैसे लौकिक अग्नि स्नेहसे संयुक्त जांठ खर आदिकाटकरके प्रज्वलित हुआ स्थित रहता है तैसे स्नेहसे संयुक्त किये पथ्यरूप भोजन करके कोष्टका अनि ढस्थित होजाता है ॥ ७९ ॥ जैसे इंधनसे रहित अथवा अल्प अथवा अत्यंत इंधन से युक्त लौकिकअग्नि प्रज्वलित नहीं होता तैसे भोजन के बिना और अत्यंत भोजन से शरीरका अग्नि प्रज्वलित नहीं होता ॥ ८० ॥
यदाक्षीणे कफे पित्तं स्वस्थाने पवनानुगम् ॥ प्रवृद्धं वर्द्धयत्यग्निं तदाऽसौ सानिलाऽनलः ॥ ८१ ॥ पक्त्वान्नमाशु धातूंश्च सर्वानोजश्चसंक्षिपन् ॥ मारयेत्साशनात्स्वस्थो भुक्ते जीर्णे तु ताम्यति ॥ ॥ ८२ ॥ तृट्कासदाह मूर्च्छाद्याव्याधयोऽत्यग्निसम्भवाः॥ तमत्यग्निं गुरुस्निग्धमन्दसान्द्रहिमस्थिरैः ॥८३॥ अन्नपानैर्नयेच्छान्तिदीप्तमग्निमिवाम्बुभिः ॥ मुहुर्मुहुरजीर्णेऽपि भोज्यान्यास्योपहारयेत् ॥ ८४ ॥
तिसकालमें कफ के क्षयको प्राप्त होनेपर आमाशय में बढाहुआ और वायुके अनुगत पित्त अग्निको बढाता है तब वायुसे मिला हुआ यह अग्नि ॥ ८१ ॥ तत्काल अन्नको और सब धातुओंको पकाके और पराक्रमको नाशितकरताहुआ मनुष्यको मारता है तब भोजन करने से स्वस्थ रहता है और जीर्ण हुये भोजनमें दुःखित होजाता है ॥ ८२ ॥ तृषा खांसी दाह मूर्च्छा आदि व्याधि अत्यंत अग्निसे उपजती है तिस अत्यंत अग्निको भारी चिकने मंद करडे शीतल स्थिर ॥ ८३॥ अन्नपानों करके शांतिको प्राप्त करें जैसे लौकिक अग्निको पानी से शान्ति होती है और अजीर्ण में भी बारबार इसके अर्थ भोजनों को प्रयुक्त करे ॥ ८४ ॥
निरिन्धनोऽन्तरं लब्ध्वा यथैनं न विपादयेत् ॥ कृशरां पायसं स्निग्धं पैष्टिकं गुडवैकृतम् ॥८५॥ अश्नीयादोदकानूपपिशिता
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