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(५९८)
अष्टाङ्गहृदयेनि भृतानि च ॥ मत्स्यान्विशेषतः श्लक्ष्णान्स्थिरतोयचराश्चये॥८६॥ आविकं सुभृतं मांसमद्यादत्यग्निवारणम् ॥
जैसे कि भोजनके अंतरको प्राप्त होके मनुष्यको नहीं मार देवै तैसे उपाय करै औरकृशराखीर चिकनापदार्थ पीठी गुडकी विकृति ॥ ८५ ॥ जल और अनूप देशकेमांस मेदवाले मांस और विशेषकरके कोमलमछली और स्थिर हुये पानी में रहनेवाले ॥ ८६ ॥ जीवोंको खावै मेदसे सयुक्त और अत्यग्नि अर्थात् भस्मकको दूर करनेवाले भेडके मांसको खावै ॥ पयः सहमधूच्छिष्टं घृतं वा तृषितःपिबेत् ॥८७॥ गोधूमचूर्ण पयसाबहुसर्पिःपरिप्लुतम्॥आनूपरसयुक्तान्वा स्नेहांस्तैलवि. वर्जितान् ॥८८॥ श्यामात्रिवृद्विपक्कं वा पयो दद्याद्विरेचनम् ॥ असकृत्पित्तहरणं पायसं प्रतिभोजनम् ॥ ८९॥
और मोमसे सहित दूधको अथवा घृतको तृषित हुआ मनुष्य पावै ॥ ८७ ॥ बहुतसे घृतसे संयुक्त गेहूँके चूर्णको दूधके संग खावै अथवा अनूपदेशके मांसके रसोकरके संयुक्त किये और तेलसे वर्जित स्नेहोंको पावै ॥ ८८ ॥ अथवा मालविका निशोत और निशोतमें पक्क हुये दूधका जुलाब देवै और बारंबार पित्तके हरनेवाले खीरका भोजन हित है ।। ८९ ॥
यत्किश्चिद्गुरुमेध्यं च श्लेष्मकारि च भोजनम् ॥
सर्वं तदत्यग्निहितं भुक्त्वा च स्वपनं दिवा ॥९०॥ जो कछ भारी और मेदको करनेवाला और कफको करनेवाला है वह सब भोजन अत्यंत अग्निमें हित है अथवा भोजनकरके दिनमें शयन करना हित है ॥ ९० ॥
आहारमाग्निः पचति दोषानाहारवर्जितः॥धातून्क्षीणेषु दोषेषु जीवितं धातुसंक्षये ॥ ९१ ॥ पहिले भोजनको अग्नि पकाताहै और फिर भोजनसे वर्जितहुआ अग्नि वातआदिदोषोंको पकाताहै और क्षीण हुये दोषोंमें धातुवोंको अग्नि पकाताहै और धातुवोंके संक्षयमें जीवितको अग्नि नाशताहै ॥ ९१ ॥
एतत्प्रकृत्यैव विरुद्धमन्नं संयोगसंस्कारवशेन चेदम् ॥ इत्याद्य विज्ञाय यथेष्टचेष्टाश्चरन्ति यत्साग्निबलस्य शक्तिः॥ ९२ ॥ त. स्मादग्निं पालयेत्सर्वयत्नस्तस्मिन्नष्टे यातिना नाशमेव ॥ दोषै
ग्रस्ते ग्रस्यते रोगसंधैर्युक्ते तु स्यान्नीरुजो दीर्घजीवी ॥ ९३ ॥ इस प्रकृतिकरके संयोग संस्कारके वशकरके यह विरुद्ध अन्नहै इनआदिको विना जाने जो यथेच्छ कार्यमें विचरतेहैं वह जठराग्निके बलकी शक्तिहै ।। ९२ ॥ तिसकारणसे सब यत्नोंकरके अग्निकी
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