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(६१८)
अष्टाङ्गहृदयेच ॥ तत्सिद्धं सुकुमाराख्यं सुकुमारं रसायनम् ॥४४॥ वातातपा ध्वयानादिपरीहार्येष्वयन्त्रणम्॥प्रयोज्यं सुकुमाराणामीश्वराणां सुखात्मनाम् ॥ ४५ ॥ नृणां स्त्रीवृन्दभर्तृणामलक्ष्मी कलिनाशनम् ॥ सर्वकालोपयोगेन कान्तिलावण्यपुष्टिदम् ॥४६ ॥ वर्मविद्रधिगुल्माोयोनिमेदानिलार्तिषु ॥ शोफो दरखुडप्लीहविड्विबन्धेषु चोत्तमम् ॥ ४७॥ नखी अथवा शांठी ४०० तोले लेवै और अलग अलग ४० तोले परिमाणसे दशमूल दूधी चंदन अरंड शतावरी ॥४१॥ दोनोंप्रकारकी डाभ शर कांश ईखकी जड नरशल इन्होंको ३०७२ तोले पानीमें पकावै जब आठवाँ भाग शेषरहै तब ९० तोले गुड ॥४२॥और६४ तोले अरंडीका तेल १२८ तोले घृत १२८ तोले दूध और आठ आठ तोले परिमाणसे पीपल पीमलामूल सेंधानमक ॥ ४३ ।। मुलहटी मुनक्कादाख अजमोद सूंठ इन्होंको मिला घृतको पकावै यह सिद्ध हुआ सुकुमारनामवाला घृत उत्तम रसायनहै ॥ ४४ ॥ वायु घाम मार्गगमन आदिके परिहारसे रहितहै
और सुकुमारोंके ऐश्वर्यवालोंके और सुखियोंके अर्थ प्रयुक्त करना योग्यहै ॥ ४५ ॥ और स्त्रियों के समूहके पतियोंकी अलक्ष्मी और कलिको नाशताहै और सब कालों में उपयोग करके कांति लावण्य पुष्टिको देताहै ॥४६॥ और वर्मरोग विद्रधी गुल्म बवासीर योनिरोग लिंगरोग वातरोगसे पीडित मनुष्योंको और शोजा उदररोग खुडवात प्लीहरोग विष्ठाके बंधसे पीडित मनुष्यको यह प्रयोग परम उत्तम है ॥ ४७ ॥
यायाद्वमं न चेच्छांति स्नेहरकानुवासनैः ॥ बस्तिकर्म पुरः कृत्वा वङ्क्षणस्थं ततो दहेत् ॥४८॥ अग्निना मार्गरोधार्थं मरुतोऽर्द्वन्दुवक्रया ॥ अंगुष्ठस्योपरिस्नावपीतं तन्तुसमंच यत् ॥ ॥४९॥ उत्क्षिप्य सूच्या तत्तिर्यग्दहेच्छित्त्वा यतो गदः ॥ ततोऽन्यपार्श्वेऽन्ये त्वाहुदेर्हद्वानार्मिकांगुलेः॥५०॥ गुल्मेन्यैर्वातकफजे प्लीह्नि चायं विधिः स्मृतः॥ कनिष्ठिकानामिकयोर्विश्वाच्यां च यतो गदः ॥ ५१ ॥
स्नेह जुलाब अनुवासन इन्होंकरके जो वर्मरोग शांतिको नहीं प्राप्त होवे तब बस्तिकर्म कराके पश्चात् अंडसंधिमें स्थितहुये वर्मको ॥ ४८ ॥ आग्निकरके दग्ध करै, वायुके मार्गको रोकनेके अर्थ और अंगूठेके ऊपर जो तांतके समान और स्नावकरके पीत हो तिसको आधा चंद्रमाके समान मुखवाली ॥ ४९ ॥ सुई करके उत्क्षेपित कर पीछे जहां रोग है तिसको तिरछा छेदित कर पश्चात दग्ध करै, पीछे दूसरी तर्फकोभी दग्ध कर और अन्य वैद्य कहतेहैं कि, अनामिका अंगुली
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