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चिकित्सास्थानं भाषाटीकासमेतम् ।
( ६०१ )
संग पीवै ॥ १३ ॥ पाटलाका खार और जवाखार नींबका खार तिलोंका खार इन्होंके पानीकरके दालचीनी इलायची इन्होंसे संयुक्तकरी मदिराको पीवै ॥ १४ ॥ अथवा दालचीनी इलायची ईख इन्होंको अलग अलग गुडने संयुक्त कर चाटै ॥
सन्निपातात्मके सर्व यथावस्थमिदं हितम् ॥ १५ ॥ अश्मन्यथ चिरोत्थाने वातवस्त्यादिकेषु च ॥
और सन्निपात के मूत्रकृच्छ्रमें अवस्था के अनुसार यह सब पूर्वोक्त हितहै ॥ १५ ॥ चिरकाल से उपजी पथरी और वातवस्ति आदि रोगों में भी यह पूर्वोक्त हित है ॥
अश्मरी दारुणो व्याधिरन्तकप्रतिमो मतः ॥ १६ ॥ तरुणो भेषजैः साध्यः प्रवृद्धश्छेदमर्हति ॥ तस्य पूर्वेषु रूपेषु स्नेहा दिक्रम इष्यते ॥ १७ ॥
और दारुण रूप यह पथरीकी व्याधी मृत्युके समान मानी है || १६ || तत्काल उपजी पथरी औषध सिद्ध हो सकती हैं और बढीहुई पथरी शस्त्रकरके छेदने के योग्य है और तिसपथरी के पूर्वरूप में स्नेह आदिकर्म वांछित हैं ॥ १७ ॥ पाषाणभेदो वसुको वशिरोऽश्मन्तको वरी ॥ कपोतवङ्कातिवलाभकोशीरकन्तकम् ॥ १८ ॥ वृक्षादनी शाकफलं व्याघ्रीगुण्ठत्रिकण्टकम् ॥ यवाः कुलत्थाः कोलानि वरुणः कतकात्फलम् ॥१९॥ उपकादिप्रतीवापमेषां काथे श्रुतं घृतम् ॥ भिन ति वातसम्भूतां तत्पीतं शीघ्रमश्मरीम् ॥ २० ॥
पाषाणभेद सोरा खारीनिमक आपटा शतावरी ब्राह्मी गंगेरण सोनापाठा खश कतकफल
॥ १८ ॥ अमरवेल शाकफल कटेहली गुंठतृण गोखरू जब कुलथी बेलगिरी वरण कैथफल ॥ १९ ॥ इन्होंके काथमें ऊषकादिगण के औषधोंकी प्रतिवाप दे तिसमें घृतको पका यह पान किया घृत वातसे उपजी पथरीको तत्काल भेदित करता है ॥ २० ॥
गन्धर्वहस्तबृहतीव्याघ्री गोक्षुरकेक्षुरात् ॥ मूलकल्कं पिबेदना मधुरेणाश्मभेदनम् ॥ २१ ॥ कुशः काशः शरो गुण्ठ इत्कटो मोरटोऽश्मभित् ॥ दर्भों विदारी वाराही शाली मूलं त्रिकण्टका ॥ २२ ॥ भल्लुकः पाटली पाठा पत्तरः सकुरण्टकः ॥ पुनर्नवा शिरीषश्च तेषां काथे पचेद्धृतम् ॥ २३ ॥ पिष्टेन त्र पुसादीनां बीजेनेन्दीवरेण वा ॥ मधुकेन शिलाजेन तत्पित्ताइमरिभेदनम् ॥ २४॥
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