________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
चिकित्सास्थानं भाषाटी कासमेतम् ।
( ६१५ )
सींगी आदि करके अथवा फस्तको खुलानेकरके यथायोग्य समीपके रक्तको निकासे और कोष्ठमें स्थित और बाहिरको ऊंची और पच्यमान विद्रधीको ॥ १८ ॥ जानकर उपनाहस्वेदसे संयुक्त करे और जिस दोषको आश्रित होके उन्नद्ध हुई विद्रधी स्थित होगई तब तिसके पार्श्वमें पीडनसे सुप्ति में अल्परूप दाह आदि होनेपर ॥ १९ ॥ पक्क हुई विद्रधीः जाननी, तिसको भेदित करके घावकी तरह चिकित्सा करै ॥
अन्तर्भागस्य चाप्येतच्चिह्नं पक्कस्य विद्रधेः २० ॥
और भीतरको रहनेवाली विद्रधी भी यही लक्षण हैं ॥ २०
पक्कः स्रोतासि सम्पूर्य स यात्यूर्ध्वमधोऽथवा ॥ स्वयं प्रवृत्तं तं दोषमुपेक्षेत हिताशिनः ॥ २१ ॥ दशाहं 'द्वादशाहं वा रक्षभिषगुपद्रवान् ॥ असम्यग्वहति क्लेदे वरणादिसुखाम्भसा ॥ ॥२२॥ पाययेन्मधुशिशुं वा यवागूं तेन वा कृताम् ॥ यवकोलकुलत्थोत्थयूषैरन्नं च शस्यते ॥ २३ ॥
पक्हुई विद्रधी स्रोतोंको पूरितकर ऊपरको तथा नीचेको प्राप्त होती है, तब पथ्यकर भोजन करने वाला मनुष्यके आपही प्रवृत्त हुये दोषकी उपेक्षा करै ॥ २१ ॥ दशदिन अथवा बारहदिन वैद्य उपद्रवोंको रक्षित करताहुवा मनुष्य नहीं अच्छी तरह बहते हुये क्केदमें वरणादिगण के औषधको सुखपूर्वक गरम पानी के संग ॥ २२ ॥ पान करावै, अथवा मीठे सहजने के काथक पान करावे अथवा मीठे सहोंजनोंकर के बनी हुई पेयाका पान करावे और जव बेर कुलथी इन्होंके यूके संग अन्न श्रेष्ठ है ॥ २३ ॥
ऊर्ध्वं दशाहाचायन्तीसर्पिषा तैल्वकेन वा ॥ ॥
शोधयेद्दलतः शुद्धः सक्षौद्रं तितकं पिबेत् ॥ २४ ॥
दशदिनके पश्चात् त्रायंतीघृतकरके अथवा तैल्बकघृत करके बलके अनुसार रोगीको शुद्ध करे पीछे शुद्धहुआ रोगी शहदसे संयुक्त तिक्तरसका पान करे ॥ २४ ॥
सर्वशो गुल्मवच्चैनं यथादोषमुपाचरेत् ॥
सब प्रकार के गुल्मकी तरह दोष के अनुसार इस विद्रधीकी चिकित्सा करै ॥ सर्वावस्थासु सर्वासु गुग्गुलं विद्रधीषु च ॥ २५ ॥ कषायैय्यौगिकैय्र्युज्ञ्ज्यात्स्वैः स्वैस्तद्वच्छिलाजतु ॥
और सब अवस्थाओं में सब प्रकारकी विद्रधीमें गूगलको ॥ २५ ॥ यथायोग्य काथों के संग प्रयुक्त करै अथवा यथायोग्य क्काथोंके संग शिलाजीतको प्रयुक्त करै ॥
For Private and Personal Use Only