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चिकित्सास्थानं भाषाटीकासमेतम्। रक्षा करे और नष्टहुई आग्निमें मनुष्य नाशको प्राप्त होताहै और दोषोंकरके प्रस्तहुई अग्निमें मनुष्य रोगके समूहोंकरके पीडित होताहै, युक्त अर्थात् स्वच्छ हुई अग्निमें रोगोंसे रहित और दीर्घ कालतक जीवनेवाला मनुष्य होजाताहै स्वभावसे बिरुद्ध अन्न अपथ्य जैसे दही सरसोंशाक फाणित शुष्क मांस मूल लकुचादिक, संयोग विरुद्ध जैसे दूधके साथ अम्लद्रव्य अनूपदेशका मांस उरद आदि संस्कारविरुद्ध जैसे हारीतका मांस शूलपर न भूनकर अग्निमें पकाना,मात्राविरुद्ध जैसे मधु और घृत बराबर लेना, समकालवश जैसे रात्रिकी धरी हुई काकमाची ( मकोय ) पात्रवश जैसे की वर्तनमें धराहुआ दशदिनका घृत यह अग्निकी शक्तिसे नहीं जीर्णहोते हैं ॥ ९३ ॥ इति बेरीनिवासिौद्यपंडितरविदत्तशास्त्रिकृताऽष्टांगहृदयसंहिताभाषाटीकायां
चिकित्सितस्थाने दशमोऽध्यायः ॥ १० ॥ एकदशोऽध्यायः॥
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अथातो मूत्राघातचिकित्सितं व्याख्यास्यामः। इसके अनंतर मूत्राघातचिकित्सितनामकअध्यायका व्याख्यान करेंगे । कृच्छ्रे वातघ्नतैलाक्तमधोनाभः समीरजे॥
सुस्निग्धैः स्वेदयेदंगं पिण्डसेकावगाहनैः॥१॥ वातसे उपजे मूत्रकृच्छ्में नाभिके नीचे अंगको वातनाशक तेलकरके अभ्यक्त कर पीछे अच्छी तरह स्निग्धरूप पिंड सेंक स्नान करके स्वेदितकरै ॥ १ ॥
दशमूलबलैरण्डयवाभीरुपुनर्नवैः॥ कुलत्थकोलपत्तूरवृश्चीवोपलभेदकैः ॥ २ ॥ तैलसर्विराहक्षवसाकथितकल्कितैः॥ सपञ्चलवणाः सिद्धाः पीताः शूलहराः परम् ॥३॥ दशमूल खरेहटी अरंड जब शतावरी शांठी कुलथी वड वेरी पतंग लालशांठी पाषाणभेद ॥२॥ इन्होंके क्वाथ और कल्कोंमें तेल घृत सूअर और रीछकी वसा इन्होंको सिद्धकर पीछे कालानमक सेंधानमक मनियारीनमक साधारणनमक साँभरनमक इन्होंको मिला पान करै तो तत्काल शूलका नाश होताहै ॥ ३ ॥
द्रव्याण्येतानि पानान्ने तथा पिण्डोपनाहने॥ सह तैलफलैर्युज्यात्साम्लानि स्नेहवन्ति च ॥ ४॥ सौवर्चलाढ्यां मदिरां पिबेन्मूत्ररुजापहाम्॥
तक्र कांजी आदिकरके सहित और स्नेहवाले इन द्रव्योंको पान और अन्नमें तथा पिंड करके स्वेदमें नारियल आदि तेलफलोंके संग प्रयुक्त करै ॥ ४ ॥ बहुतसे कालेनमकसे संयुक्त कर मूत्रके शूलको नाशनेवाली मदिराको पीवै ॥
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