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(६०६)
अष्टाङ्गहृदयेऔर पथरीको निकासकर पीछे तिस रोगीको गरमपानीसे भरीहुई द्रोणी अर्थात् तेगमें स्नान करवावै ॥ ५५ ॥ तिस स्नान करके बस्तिस्थान रक्तसे नहीं पूरित होताहै और जो कदाचित दैवयोगसे रक्तकरके बस्ति पूरित हो जावे तब दूधवाले वृक्षोंके काथकरके उत्तर बस्तिको देवे, तिसके पश्चात् मूत्रकी शुद्धिके अर्थ ॥ ५६ ॥ गुड करके तृप्तिको करै, और शहद तथा घृतसे अभ्यक्त हुय घाववाला यह मनुष्य दोनोवक्त घृतसे संयुक्त और कछुक गरम और काकडी कोहला गोखरू आदिसे बनीहुई यवागूको पीवै तीन दिनोंतक ।। ५७ ॥ अत्यंत गुडकरके मिलेहुये दूधके संग थोडेसे चावलोंको खावै, और दश दिनके पश्चात् जांगलदेशमें विचरनेवाले जीवोंके मांसोंका रस और अनार विजोरा आदि खट्टेरस करके अल्पचावलोंको खावै ॥ १८ ॥
क्षीरिवृक्षकषायण व्रणं प्रक्षाल्य लेपयेत्॥ प्रपौण्डरीकमञ्जिष्ठा यष्टयाह्वनयनौषधैः ॥५९॥ व्रणाभ्यङ्गं पचेत्तैलमेभिरेव निशान्वितैः॥
दूधवाले वृक्षोंके काथकरके घावको प्रक्षालित कर पीछे पौंडा कमल मजीठ मुलहटी लोध करके लेप करै॥१९॥ और इन्ही औषधोंमें हलदी मिलाके घावपै मालिश करनेके अर्थ तेलको पंकावै।।
दशाहं स्वेदयेच्चैनं स्वमार्ग सप्तरात्रतः॥६०॥ मूत्रे त्वगच्छति दहेदश्मरीत्रणमग्निना ॥ स्वमार्गप्रतिपत्तौ तु स्वादुप्रायैरुपा
चरेत् ॥६१॥ ऐसे इस घाबको दशदिनतक स्वेदित करे, पीछे अपने मार्गमें मूत्र नहीं जावै तब सातरा प्रिकरके ।।६० ॥ अग्निकरके पथरीके घावको दग्धकरै, और अपनेमार्गमें प्रवृत्तिवाला मूत्र होजावे तब विशेषताकरके मधुरपदार्थोकरके संयुक्त हुई उत्तरबस्तियों करके तिसरोगीको उपचारित करै ॥६१॥
तं बस्तिभिन चारोहेद्वर्ष रूढव्रणोऽपि सः॥
नगनागाश्ववृक्षस्त्रीरथान्नाशु प्लवेत सः॥६२॥ अंकुरित घाववाला रोगी एकवर्षतक पर्वत हाथी घोडा वृक्ष स्त्री रथ पर न चढै और जलमें न पेरै ॥ ६२ ॥
मूत्रशुक्रवहौ बस्तिवृषणौ सेवनी गुदम् ॥
मूत्रप्रसेकं योनि च शस्त्रेणाष्टौ विवर्जयेत् ॥ ६३ ॥ मूत्रको वहनेवाला बस्तिस्थान और वीर्यको बहनेवाले दोनों वृषण सीमन गुदा मूत्रप्रसेक पोनि इन आठोंको शस्त्रकरके वार्जित करै अर्थात् इनमें शस्त्रकर्म न करै ॥ ६३ ॥ इति बेरीनिवासिवैद्यपंडितरविदत्तशास्त्रिकृताष्टांगहृदयसंहिताभाषाटीकायां
चिकित्सितस्थाने एकादशोऽध्यायः॥ ११ ॥
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