________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
चिकित्सास्थानं भाषाटीकासमेतम् । क्रोधजो याति कामेन शाति क्रोधेन कामजः॥९६८॥
भयशोकोद्भवौ ताभ्या भीशोकाभ्यां तथेतरौ॥ और क्रोधसे उपजा ज्वर कामका उपभोग करके शांतिको प्राप्त होताहै और कामसे उपज ज्वर क्रोधकरके शांत होताहै ॥ १६८ । भय और शोकसे उपजेज्वर काम और क्रोध करके शांतिको तो प्राप्त होतेहैं काम और क्रोधसे उपजे ज्वर भय और शोक करके शांतिको प्राप्तहोते हैं
शापाथर्वणमन्त्रोत्थे विधिर्दैवव्यपाश्रयः ॥१६९ ॥ और मुनि तथा पिता आदिके शापसे उपजे ज्वरमें और अथर्वणवेदके मंत्रके द्वारा अभिचारसे उपजे ज्वरमें ईश्वरका स्मरण करना यही विधि हित है ।। १६९॥
ते ज्वराः केवलाः पूर्वं व्याप्यन्तेऽनन्तरं मलैः॥ तस्मादोषानुसारेण तेष्वाहारादि कल्पयेत् ॥१७०॥ न हि ज्वरोऽनुबन्नाति मारुतायैर्विनाकृतः॥ ज्वरं कालस्मात चास्य हारिभिर्विषयेहरेत् ॥ १७१ ॥
ये औषध आदिसे उपजेहुये ज्वर पहिले केवल रहतेहैं पीछे वातआदि दोषोंसे व्याप्त हो जातेहैं तिसकारणसे दोपके अनुसार तिनज्वरोंमें भोजन आदिको कल्पितकरै ॥ १७० ॥ और वातआदि दोषके विना वर अनुबंधको नहीं करताहै और ज्वरके समयको और ज्वरकी स्मृतिको रोगीके मनको हरनेवाले शब्द आदि विषयों करके दूर करे ।। १७१ ॥
करुणाई मनः शुद्धं सर्वज्वरविनाशनम् ।। दयाकरके आर्द्रहुवा और रागद्वेष आदिकरके शुद्धहुआ मन सब प्रकारके जरोंको नाशता है । त्यजेदावललाभाच्च व्यायामस्नानमैथनम् ॥ १७२ ॥ गुर्वसात्म्यविदाह्यन्नं यच्चान्यज्ज्वरकारणम् ॥ न विज्वरोऽपिसहसा सर्वान्नीनो भवेत्तथा ॥ १७३॥ निवृत्तोऽपि ज्वरः शघ्रिं व्यापादयति दुर्बलम् ॥ सद्यःप्राणहरो यस्मात्तस्मात्तस्य विशेषतः॥ तस्यां तस्यामवस्थायां तत्तत्कुर्याद्भिषग्जितम् ॥ १७४॥
और जबतक बलकी प्राप्ति होवे तबतक व्यायाम अर्थात् कसरत, स्नान, मैथुन ॥ १७२ ।। भारी, प्रकृतिके विरुद्ध, विदाही, अन्न और ज्वरको करनेवाले अन्य पदार्थ अर्थात् पिष्टअन्न, हारतशाक, सूखामांस, तिल, दही आदि बहुतसे पदार्थोंको त्यागै, और ज्वरसे रहित हुआ मनुष्यभी क्रमके विना सब अन्नोंको भक्षण करनेवाला नहीं होवे ॥ १७३ ॥ क्यों कि निवृत्तहुआभी ज्वर दुर्बल मनुष्यको तत्काल प्राप्त होके दुःख देता है और जिस कारणसे ज्वर तत्काल प्राणको हरता है तिल कारणसे तिस ज्वर रोगीकी विशेषतासे ।। १७४ ॥
For Private and Personal Use Only