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(५८२)
अष्टाङ्गहृदयेहितम् ॥८२॥पद्मोत्पलसमाभिः शृतं मोचरसेन वा ॥ सारी . वायष्टिरोधैर्वा प्रसवै वटादिजैः॥ ८३ ॥ सक्षौद्रशर्कर पाने
भोजने गुदसेचने ॥ जो पित्तातिसारी पित्तको करनेवाले पदार्थोंको अत्यंत सेवै ।। ८१ ॥ तिस मनुष्यके पित्त तृषा और ज्वरसे संयुक्त होकर और दारुण गुदाको पकानेवाले रक्तातिसारको करताहै तहां बकरीका दुध हित है ॥ ८२ ॥ परंतु कमल नीलाकमल मँजीठसे पकाया अथवा मोचरस करके पकाया अथवा सारिवा मुलहटी लोध इन्होंकरके पकाया अथवा वड आदिके पत्तोंकरके पकाया ।। ८३ ॥ शहद और खांडसे संयुक्त वह पूर्वोक्त दूध पीनेमें और भोजनमें और गुदाके सेचनेमें हित है ॥ तद्वद्रसादयोऽनम्लाः साज्याः पानान्नयोहिताः ॥४॥ काश्म
र्यफलयूषश्च किंचिदम्लः सशर्करः॥ पयस्योदके छागे ह्रीबेरोत्पलनागरैः॥८५॥ पेया रक्तातिसारनी पृश्निपर्णीरसान्विता ॥ प्राग्भक्तं नवनीतं वा लिह्यान्मधुसितायुतम् ॥ ८६ ॥
और तैसेही अम्लपनेसे रहित और घतसे संयुक्त यूष आदि रस पान और भोजनमें हित हैं । ॥ ८४ ।। कुछेक अम्ल और खांडसे संयुक्त कंभारीके फलोंका यूप हित है और आधे पानीसे संयुक्त किये अकरीके दूधमें नेत्रवाला कमल सूंठ करके ॥ ८५ ॥ और पृश्निपीके रससे संयुक्त करी पेया रक्तातिसारको नाशती है अथवा शहद और मिसरीसे संयुक्त नोनीघृतको चाटै ॥ ८॥
बलिन्यस्रेस्रमेवाजं मार्ग वा घृतभर्जितम् ॥ क्षीरानुपानं क्षीराशी त्र्यहं क्षीरोद्भवं घृतम् ॥ ८७ ॥
कपिञ्जलरसाशी वा लिहन्नारोग्यमश्नुते॥ बढे हुये रक्तमें वृतमें भुना बकरेके मांसका रक्त अथवा मृगके रक्तको भोजन करे, और दूधका अनुपान करै, और दूधकाही भोजन करता रहै, और तीन दिनोंतक दूधसे निकासे घृतको चाटता हुआ ॥८७॥ अथवा कपिंजलपक्षीके मांसके रसको खाता हुआ मनुष्य आरोग्यको प्राप्त होता है ।।.
पीत्वा शतावरीकल्क क्षीरेण क्षीरभोजनः॥ ८८॥
रक्तातिसारं हन्त्याशु तया वा साधितं घृतम् ॥ ___ और दूधका भोजन करनेवाला मनुष्य शतावरीके कल्कको दूधके संग पान करके ॥ ८८ ॥ अथवा शतावरीमें सिद्ध किये घृतका पानकरके रक्तातिसारको तत्काल नाशता है ।।
लाक्षानागरवैदेहीकटुकादार्विवल्कलैः ॥ ८९ ॥ सर्पिः सेन्द्रयः सिद्धं पेयामण्डावचारितम् ॥
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