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(५८४)
अष्टाङ्गहृदयेशीसम और अमलतासके पत्तोंको जर्जरी भूतकर और जवोंको पकाय पीछे घृत और दूधसे संयुक्त किया यह काथ ॥ ९६ ॥ पिच्छास्त्रुतमें गुदभ्रंशमें प्रवाहिकाकी पीडाओंमें ये पिच्छावस्ति प्रयुक्त करना योग्य है, यह क्षत और क्षीण मनुष्योंको बल देता है ॥ ९७ ॥
प्रपौण्डरीकसिद्धेन सर्पिषा चानुवासनम् ॥ पौंडाके रसमें पकेहुये घृतकरके अनुवासन देना योग्यहै । रक्तं विट्सहितं पूर्वं पश्चाद्वा योऽतिसार्य्यते ॥९८ ॥ शतावरी घृतं तस्य लेहार्थमुपकल्पयेत् ॥ शर्करा शकं लीढं नवनीतं नवोद्धृतम् ॥९९॥ क्षोद्रपादं जयेच्छीघ्रं तं विकारं हिताशिनः॥ विष्ठाकरके सहित रक्तको अथवा विष्ठासे पहिले या पीछे गुदासे रक्तको निकासै ॥ ९८ ॥ तिस मनुष्यको शतावरी का घृत चाटना योग्यहै, और खांडके आधे भागसे संयुक्त और शहदके चौथाई भागसे संयुक्त, और नवीन निकसाहुआ नोनी चूत ॥ ९९ ॥ हितभोजन करनेवाले मनुष्यक पूर्वोक्त विकारको तत्काल जीतताहै ॥
न्यग्रोधोदुम्बराश्वत्थशृङ्गानापोथ्य वासयेत् ॥१००॥ अहोरात्रं जले तप्ते घृतं तेवाम्भसा पचेत्॥तदर्द्धशर्करायुक्तं लेहयेत्क्षौद्रपादिकम् ॥ १०१ ॥ अधो वा यदि वाप्यूवं यस्य रक्तं प्रवर्त्तते ॥
और वड गूलर पीपलवृक्षके अंकुरोंको कूट ॥ १०० ॥ एकदिन और रात्रितक गरम जलमें वासित करे, पीछे तिस पानी करके घृतको पकावै, तिस प्रतमें आधी खांड और चौथाईभाग शहद मिलाकै चोटै ॥ १०१ ॥ जिसके गुदा और लिंगके द्वारा तथा मुख और नासिकाके द्वारा रक्त प्रवृत्त होवे तिस मनुष्यके ॥
श्लेष्मातिसारे वातोक्तं विशेषादामपाचनम् ॥१०२॥ कर्तव्यम नुबन्धस्य पिवेत्पक्त्वाग्निदीपनम् ॥ बिल्वकर्कटिकामुस्तप्राणदा विश्वभेषजम्॥१०३॥वचाविडङ्गभूतीकधानकामरदारु वा॥ अथवा पिप्पलीमूलपिप्पलीद्वयचित्रकाः॥१०४॥ पाठाग्निवत्सकग्रन्थितिक्ताशुण्ठीवचाभयाः॥ कथिता यदि वा पिष्टाः श्लेष्मातीसारभेषजम् ॥ १०५॥
कफके अतिसारमें और वातके अतिसारमें विशेषपनेसे आमको पकानेवाला जो औषध है यह करना योग्यहै ॥ १०२॥ और इस अतिसारकी चिकित्सामें बेलगिरी काकडी नागरमोथा झूठ
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