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चिकित्सास्थानं भाषाटीकासमेतम् । (५५३) और आकका दूध और थूहरका कांड, कुटकी, तूंबीके पत्ते ॥ २५ ॥ करंजुआ इन्होंको बकरेके मूत्रमें पीस बवासीरके मस्सोंपै लेपकरना श्रेष्ठहै और अनुवासनिक द्रव्योंकरके और पीपल, मैनफल इत्यादि वक्ष्यमाण औषधोंकरके किया लेप बवासीर के मस्सोंमें हितकारी है ॥२६॥ ॥ इन्हीं औषधोंकरके तेल और अभ्यंजनकोभी करै ।
धूपनालेपनाभ्यः प्रत्रवन्ति गुदांकुराः ॥२७॥ सञ्चितं दुष्टरुधिरं ततः सम्पद्यते सुखी ॥
और धूप लेप अभ्यंग करके गुदाके मस्से ॥२७॥ संचित हुए दुष्ट रक्तको झिरातेहैं तब मनुष्य सुखी होताहै ।।
आवर्तमानमुच्छूनकठिनेभ्यो हरेदसा ॥२८॥ अर्शीभ्यो जल जाशस्त्रसूचीकूचैः पुनः पुनः॥शीतोष्णस्निग्धरूक्षायैनव्याधि
रुपशाम्यति ॥२९॥रक्ते दुष्टे भिषक्तस्माद्रक्तमेवावसेचयेत्॥ अत्यंतसूजे और कठिन मस्सोसे जो रक्त नहीं निकले तो ॥ २८ ॥ जोख, शस्त्र, सूई कूर्च करके वारंवार रक्तको निकासै और शीतल गरम स्निग्ध रूक्ष आदिकरके जो रोग नहीं शांत होवे ॥ २९ ॥ तब दुष्ट हुआ रक्त जानना तिसकारणसे वैद्य वहांसे रक्तको निकासै ॥
यो जातो गोरसः क्षीरावह्निचूर्णावचूर्णितात् ॥ ३० ॥ पिस्तमेव तेनैव भुञ्जानो गुदजाजयेत्॥
और चीताके चूर्णसे अवचूर्णित दूधसे जो तक उपजताहै ॥ ३० ॥ तिस तक्रको पनेिवाला अथवा तिसी तक्रके संग भोजनकरनेवाला मनुष्य गुदाके मस्सोंको जीतताहै ॥
कोविदारस्य मूलानां मथितेन रजः पिबेत् ॥३१॥ अश्नञ्जीर्णे च पथ्यानि मुच्यते हतनामभिः ॥
और अमलताशके जडके चूर्णको मंथके संग पीवै ।। ३१।। और जीर्ण होनेपै पथ्यपदार्थोको भोजन करनेवाला मनुष्य बवासीरके मस्सोंसे छूटजाताहै ॥
गदश्वयथुशूला? मन्दाग्नि!ल्मिकान्पिबेत् ॥ ३२ ॥ हिंग्वादीननुतकां वा खादेगुडहरीतकीम् ॥ तक्रेण वा पिबेत्पथ्यावेल्लाग्निकटजत्वचः ॥ ३३॥ कलिङ्गमगधाज्योतिःसूरणान्वांशवर्द्धितान ॥ कोष्णाम्बुना वा त्रिकटुव्योषहिंग्वम्लवेतसम् ॥३४॥ गुदामें शोजा और शूलसे पीडित मंद अग्निवाला मनुष्य गुल्मचिकित्सामें कहेहुये हिंग्यादि चीको पीवै ॥ ३२ ॥ अथवा गुडसहित हरडोंको खाके पश्चात् तक्रका अनुपान करै, अथवा
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