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चिकित्सास्थानं भाषाटीकासमेतम् ।
(५५५ )
सयुक्त तीन प्रकार के तकको दोष अग्नि बलका जाननेवाला वैद्य प्रयुक्त करै ॥ ४१ ॥ तक्र अच्छीतरह उन्मीलित हुये गुदाके मस्से फिर नहीं उगते हैं क्योंकि पृथ्वीमें सींचा हुआ तक कठिन रूप तृणोंको नाशता है तब कोमलरूप मांसोंके नाशनेमें कौन कथा है ॥ ४२ ॥
स्रोतस्सु तत्रशुद्धेषु रसो धातृनुपैति यः ॥ तेन पुष्टिर्वलं वर्णः परं तुष्टिश्च जायते ॥ ४३ ॥ वातश्लेष्मविकाराणां शतं च विनिवर्त्तते ॥ मथितं भाजने क्षुद्रबृहतीफललेपिते ॥ ४४ ॥ निशां पर्युषितं पेयमिच्छद्भिर्गुदजक्षयम् ॥
त करके शुद्ध हुये स्रोतों में जो रस धातुओं को प्राप्तहोता है तिस करके पुष्टि बल वर्ण अत्यंत तुष्टि उपजती है ॥ ४३ ॥ और सैकड़ों प्रकारके बात और कफोंके विकार शांत होते हैं और छोटी कटेहलीके फलोंकरके लेपित किये पात्रमें ॥ ४४ ॥ रात्रीमात्र पर्युषितरूप मंथ गुदा के मस्सों को नाशने की इच्छावाले मनुष्यों को पीना योग्य है ।।
धान्योपकुञ्चिकाजाजीहपुषापिप्पलीद्वयैः ॥ ४५ ॥ कारवीग्र न्थिकशठीयवान्यग्नियवानकैः ॥ चूर्णितैर्धृतपात्रस्थं नात्यम्लं तक्रमासुतम्॥४६॥तक्रारिष्टं पिबेज्जातं व्यक्ताम्लकटुकामतः॥ दीपनं रोचनं व कफवातानुलोमनम् ॥४७॥ गुदश्वयथुकण्डार्त्तिनाशनं बलवर्द्धनम् ॥
धनियां, कलौंजी, जीरा, हाऊबेर, छोटी पीपल, बडी पीपल इन्होंकरके ॥ ४५ ॥ और बडीसौंफ, पीपलामूल, कचूर, अजवायन, चीता, अजमोद के चूर्णो करके घृतके पात्र में स्थित और अन्य - म्लपनेसे रहित तत्रको चुवा करके ॥ ४६ ॥ पश्चात् व्यक्त अम्ल और कटुरस युक्त तत्रारिष्टको इच्छा से पीवै वह तक्रारिष्ट दीपन है रोचन है और वर्ण में हितहै कफ और वातको अनुलोमित करता है ॥ ४७ ॥ और गुदाका शोजा पीडा खाजको नाशता है और बलको बढाता है ॥
त्वचं चित्रकमूलस्य पिष्ट्रा कुम्भं प्रलेपयेत् ॥ ४८ ॥ तकं वा दधि वा तत्र जातमर्शोहरं पिवेत् ॥ भार्यास्फोतामृतापञ्च कोलेष्वप्येष संविधिः ॥ ४९ ॥
और चीतेके जडकी छालको पीसकर घडेके भीतर से लेपित करै ॥ ४८ ॥ तिस कलशेमें उपजा तक्र अथवा दही ववासीरको हरता है, इसको गुदरोगी पीवै और भारंगी, सफेद शारिवा, गिलोय, पीपल, पीपलामूल, चव्य, चीता, इन्होंमें भी यह विधि करनी योग्य है ॥ ४९ ॥
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