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(५५४)
अष्टाङ्गहृदयेहरडे, वायविडङ्ग, चीता, कूडाकी छालको तक्रके संग पावै ॥ ३३ ॥ अथवा भागसे वर्द्धित इन्द्रजव, पीपल, चीता, जमीकंदके चूर्णको तक्रके संग पीवै. अथवा गरम पानीके संग कालानमक, सेंधानमक, सांभरनमक, सूंठ, मिरच, पीपल, हींग, अम्लवेतसको पीवै ॥ ३४ ॥
युक्तं बिल्वकपित्थाभ्यां महौषधविडेन वा ॥ आरुष्करैर्यवान्या वा प्रदद्यात्तकतर्पणम्॥३५॥दद्याद्वाहपुषा हिंग चित्रकं तकसंयुतम् ॥ मांसं तकानुपानानि खादेत्पीलुफलानि वा ॥ ३६ ॥ पिबेदहरहस्तकं निरन्नो वा प्रकामतः॥अत्यर्थ मन्दकायाग्नेस्तक्रमेवावचारयेत् ॥ ३७॥
अथवा बेलगिरी और कैथसे संयुक्त अथवा सूंठ और मनियारी नमकसे संयुक्त अथवा भिलावा और अजवायनसे संयुक्त जत्रोंके सत्तुओंके तक्रके संग देवै ॥ ३५ ॥ अथवा हाऊवेर, हींग, चीतेको तक्रके संग देवै अथवा एकमहीनेतक पीलुफलेको खाके तक्रका अनुपान करता रहै ॥ ३६ ॥ अथवा इच्छाके अनुसार अन्नको नहीं भोजन करता हुआ मनुष्य नित्यप्रति तक्रकोही पीता रहै, और अत्यंत मंदअग्निवाले मनुष्यको प्रभातमें और सायंकाल तक्रकाही उपचार करावे ॥ ३७॥
सप्ताहं वा दशाहं वा मासार्धं मासमेव वा॥बलकालविकारज्ञो भिषक्तकं प्रयोजयेत् ॥ ३८॥ सायं वा लाजसत्तूनां दद्यात्तकावलेहिकामाजीणे तके प्रदद्याहा तक्रपेयां ससैन्धवाम्॥३९॥ तक्रानुपानं सस्नेहं तक्रौदनमतः परम् ॥ यूथै रसैर्वा तकादयः शालीन्भुञ्जीत मात्रया ॥४०॥ सातदिनोंतक अथवा १० दिनोंतक अथवा १५ दिनोंतक अथवा महीनातक बलकाल विकारको जाननेवाला वैद्य तक्रकोही प्रयुक्त क॥३८॥अथवा सायंकालमें धानके खीलोंके सत्तुओंकी तक्रमें बनाई चटनीको चटावै, अथवा जीर्णहुये तक्रमें सेंधानमकसे संयुक्त तक्रकी पेयाको देवै ।।-३९ ॥ अथवा इस कालसे उपरांत लेहसे संयुक्त तकसे मिले चावलको देके तक्रका अनुपान करावे, अथवा तकसे मिलेहुये यूष और रसोंके संग मात्राके अनुसार शालिचावलोंको खावे॥४०॥
रूक्षमोइतलेहं यतश्चानुवृतं घृतम् ॥ तक्रं दोषाग्निबलवत्रिविधं तत्प्रयोजयेत् ॥ ४१ ॥ न विरोहन्ति गुदजाः पुनस्तकस.
माहताः॥ निषिक्तं तद्विधं हन्ति भूमावपि तृणोलुपम् ॥४२॥ कदाचित् रूक्ष कदाचित् आधे निकासेहुये स्नेहसे संयुक्त कदाचित नहीं निकासे हुथे धृतसे
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