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(५४२)
अष्टाङ्गहृदये॥ ५५ ॥ और जो कामदेवका अस्त्र है और जो बलदेवजीका पुरुषार्थ है और जो सौत्रामणी यज्ञमें ब्राह्मणके मुखमें तथा अग्निंमें होमी जातीहै ॥ ५६ ॥ और जो देवते और राक्षसोंकरके मध्यमान और सब औषधियोंकरके पूरण वडे समुद्रसे लक्ष्मी चंद्रमा अमृतके संग प्रकट हुईहै ॥ ५७ ॥ जो मधुमाधव मैरेय सीधु गौड आसव आदि बहुतसे रूपोंकरके मदकी शक्तिको पश्चात् हत करतीहुई स्थितहै ॥ १८॥ और जिसको प्राप्त होके विलास करनेवाली स्त्रिये यथार्थनामको धारण करती हैं और जिसको पानकरके अच्छे कुलकी स्त्रीभी उद्धृतमनवाली होके ॥ १९ ॥कामदेवकरके आलिंगित हुये अंगोंके द्वारा मुनिजनके चित्तको आकर्षित करती हैं और जो तरंगोंके भंग करके संयुक्त हुई भकुटोके तर्जन करके मानिनी स्त्री अकेले मनको ॥१०॥ प्रसन्नकरके दोनों स्त्रीपुरुषको सुखकी प्राप्ति करती है और यथेच्छ शूरपुरुषकी बौछा करके आनंदित हुये अप्सराओंके समूह वाले ॥ ६१ ॥ युद्धमें जिसको प्राप्त होके पुरुष तृणकी तरह प्राणोंको त्यागतेहैं और बहुतसे रूपोंवाली जिस मदिराको बहुतकालतक सेवित करके ॥ ६२ ॥ नित्यप्रति आनंदके अत्यंत वेगकरके प्रथमदिनकी तरह मनुष्य सेवित करताहै और जिसको देखकर शोक उद्वेग ग्लानि भयकरके मनुष्य दुःखित नहीं होताहै ॥ ६३ ।। और जिसके विना सभा बडा उत्सव उद्यान अर्थात् शहरके समीप बगीचे व अखाडे नहीं शोभित होते हैं और जिसकरके वियुक्त हुआ मनुष्य बारवार स्मरणकरके दुःखित होजाताहै ॥ ६४ ॥ और प्रसन्नतासे वर्जितभी जो प्रीतिके अर्थ कही है
और जो साक्षात् प्रसन्ना स्वर्गरूपहै और हृदयमें स्थितहुई जिसकरके मनुष्य इंद्रकोभी दःखित मानताहै ॥ ६४ ॥ अनिर्देश्य अर्थात् जिसका सुख और स्वाद नहीं कहाजाताहै और जो केवल अपने आत्माहीकरके जाननेको योग्यहै और जो नानाप्रकारकी अवस्थाओंमें प्रियाको क्रीडाके अर्थ अनगडीत करती है ॥६६॥ और मदिराको प्रिय माननेवाले मनुष्य के विशेषपनेसे प्रिया अर्थात भार्या अत्यंत प्रियताको प्राप्त होती है और यही प्रीति है और यही रति है और यही पुष्टी है ऐसे ॥ १७ ॥ देवते दानव गंधर्व यक्ष राशस मनुष्य इन्हों करके स्तुतिकीहै और पानकी प्रवृत्तीमें तिस पूर्वोक्तगुणोंवाली मदिराको वक्ष्यमाण विधिकरके पावै ॥ ६८ ॥
सम्भवन्ति च ये रोगा मेदोऽनिलकफोद्भवाः॥ विधियुक्तादृते मद्यात्ते न सिध्यन्ति दारुणाः ॥ ६९॥ दारुणरूप और मेद वात कफसे उपजे हुये जो रोग होते हैं वे विधियुक्त मदिराके विना सिद्ध नहीं होते ।। ६९ ॥ .
___ अस्ति देहस्य सावस्था यस्यां पानं निवार्यते॥
अन्यत्र मद्यान्निगदाद्विविधौषधसंभृतात् ॥७॥ शरीरकी वहभी अवस्थाहै ( अर्थात् प्रक्लिन्नदेह मेहआदि) जिसमें मदिरा निवारितकीजाती है परंतु पुरानी और अनेक प्रकारके औषधोंकरके संस्कृत मदिरा वर्जित नहीं है ॥ ७० ॥
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