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(५४४)
अष्टाङ्गहृदये- . . इति गतं दधतीभिरसंस्थितं तरुणचित्तविलोभनकार्मणम् ॥८०॥ यावनासवमत्ताभिर्विलासाधिष्ठितात्माभिः॥सञ्चार्य: माणं युगपत्तन्वङ्गीभिरितस्ततः ॥ ८१ ॥ तालवृन्तनलिनी दलानिलैः शीतलीकृतमतीव शीतलैः॥दर्शनेऽपि विदधद्वशा नुगं स्वादितं किमुत चित्तजन्मनः॥ ८२ ॥ चूतरसेन्दुमृगैः कृतवासं मल्लिकयोज्ज्वलया च सनाथम् ॥स्फाटिकशुक्तिगतं सतरङ्ग कान्तमनङ्गमिवोद्वहदङ्गम्॥८३॥ तालीसाद्यं चूर्णमेलादिकं वा हृद्यं प्राश्य प्राग्वयःस्थापनं वा ॥ तत्प्रार्थिभ्यो भूमिभागे समृष्टे तोयोन्मिभं दापयित्वा ततश्च ॥८४॥ धृतिमान्स्मृतिमान्नित्यमन्यूनाधिकमाचरन् ॥ उचितेनोपचारेण सर्वमेवोपपादयन्॥८५॥जितविकसितसरोजनयनसंक्रान्ति वर्द्धितश्रीकम्॥कन्तामुखमिव सौरभहृतमधुपगणं पिबेन्मद्यम् ॥८६॥ स्नानकरके शुद्धहुआ मनुष्य यथायोग्य देवता ब्राह्मण गुरुको प्रणाम करके और समस्त परिवारकी वृत्तीको विधान करके कपूर और खसआदिके पानीसे सींचीहुई और भोजनके मंडपके समीपमें प्राप्तहुई मदिरा पीनेकी भूमिमें आश्रित होवै ॥ ७६ ॥ और अच्छीतरह आस्तृत अर्थात् सुंदर बिछोना तकिया आदिकरके आच्छादित और रमणीय शय्यापै मित्र नौकर भार्यासे सहित और कथक और चारणोंके समूहों करके उद्धृत और लोकको आक्रमित करनेवाले अपने यशको सुनता हुआ ॥ ७७ ॥ और स्त्रियोंके स्थान आसन गमन आनंद भृकुटी नेत्रके कर्म उत्पन्न होते हैं जहां ऐसे विलास करके शोभित और नृत्यसे सहित और मधुर बाजोंके शब्दों करके और स्त्रियोंकी तगड़ियोंके कलापों करके और स्फुटित हुई सूक्ष्म धुंघरूओंकरके और सारस आदि पक्षियों करके किये हुये अनुशब्दसे संयुक्त गानको सुनता हुआ ॥ ७८ ॥ मणि और सोना करके बने हुये अनेक प्रकारवाले और जलसे सहित अनेक प्रकारवाले लेख अर्थात् क्षौमवस्त्र करके आवृत अंगवाले आवनेयोंकरके और मुनिजनोंके चित्तको क्षोभ करनेवाली और चकित हुये भूगोंकी तरह चंचलरूप नेत्रोंकरके अच्छतिरह देखने वाली ॥ ७९ ॥ और अनवस्थित स्वरूपको धारण करनेवाली और स्तन तथा नितंबकरके किये अत्यंत गौरवसे आलस्यके तथा ईश्वरके भयसे आकुलित हुये गमनको और तरुण चित्तवाले मनुष्योंके वशीकरणको धारण करनेवाली ।। ८०॥ यौवन और आसव करके उन्मत्त हुई और विलास करके अधिष्ठित चित्तवाली और सूक्ष्म अंगोवाली स्त्रियों करके एककालमें जहां तहांसे संचा[माण मनुष्यको तिस ॥ ८१ ॥ अत्यंत
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