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चिकित्सास्थानं भाषाटीकासमेतम्।
(५३९) प्रभूतशुण्ठीमरिचहरिताकपेशिकम् ॥बीजपूररसायम्लभृष्ट नीरसवर्तितम् ॥३९॥ करीरकरमर्दादिरोचिष्णुबहुशालनम्॥ प्रव्यक्ताष्टाङ्गलवणं विकल्पितनिमर्दकम्॥४०॥यथाग्नि भक्षयन्मांस माधवं निगदं पिबेत् ॥
उत्कटरूप सूंठ मिरच हरी अदरककी पेशी अर्थात् शस्त्रकरके आंतोंके समान दीर्घ आकारचाले छिलकेसे संयुक्त और विजोराके रसआदिकरके अम्ल तथा भ्रष्ट तथा स्नेह आदिकरके प्रायतासे सूखा व्यंजन प्रकारसे संयुक्त ॥ ३९ ॥ और करीर कसोंदी आदि रुचिको करनेवाले पदार्थों करके बहुतसे शालनसे संयुक्त और प्रगट हुये वक्ष्यमाण अष्टांगलवणसे संयुक्त और कल्पित निमर्दकवाले ॥ ४० ॥ मांसको अग्निके अनुसार खाताहुआ मनुष्य पुराने माधवसंज्ञक मद्यको पीवै ॥
सितासौवर्चलाजाजीतिन्तिडीकाम्लवेतसम् ॥४१॥ त्वगेलामरिचार्भाशमष्टाङ्गलवणं हितम् ॥ स्रोतोविशुद्ध्यग्निकरं कफ प्राये मदात्यय॥४२॥रूक्षोष्णोद्वर्तनोद्धर्षस्नानभोजनलंघनैः॥ सकामाभिः सह स्त्रीभिर्युक्त्या जागरणेन च॥४३॥ मदात्ययः कफप्रायः शीघ्रं समुपशाम्यति ॥
और मिसरी कालानमक जीरा अमली अम्लवेतस ॥४१॥ दालचीनी इलायची ये सब समभाग और मिरच आधाभाग यह अष्टांगलवण कफकी अधिकतावाले मदात्ययमें हित है और स्रोतों को शुद्ध करता है और अग्निको दीपन करता है ॥ ४२ ॥ रूक्ष और गरमरूप उबटना घर्षण स्नान भोजन करके और लंघनोंकरके और कामदेवसे संयुक्त हुई स्त्रियों करके और युक्तिके द्वारा जागने करके ॥ ४३॥ कफकी अधिकतावाला मदात्ययरोग शीघ्र शांत होजाताहै ॥
यदिदं कर्म निर्दिष्टं पृथग्दोषबलं प्रति ॥४४॥
सन्निपाते दशविधे तच्छेषेऽपि विकल्पयेत् ॥ और जो जो कर्म अलग अलग दोषका बलके प्रति कहा है ॥ ४४ ॥ तिसको दश प्रकारके सान्निपातमें और तीन प्रकारवाले सन्निपातमें कल्पित करै ।।
त्वङ्नागपुष्पमगधामरीचाजाजिधान्यकैः ॥४५॥ परूषकमधूकैलासुराद्वैश्च सितान्वितैः ॥ सकपित्थरसं हृद्यं पानकं श. शिबोधितम् ॥४६॥ मदात्ययेषु सर्वेषु पेयं रुच्यग्निदीपनम् ॥
जैसे वातकी अधिकतावाले मदात्ययसे उपजे सन्निपातमें जो कर्म कहाहै तथा पित्तकी अधिकतावाले मदात्ययसे उपजा सन्निपातमें जो कर्म कहाहै ब्रह्मकर्म वात पित्तकी अधिकतावाले मदात्यय
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