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( ४८२ )
अष्टाङ्गहृदये
रक्ते सपित्त सकफे ग्रथिते कण्ठमार्गगे ॥ लिह्यान्माक्षिकसर्पिर्भ्यां क्षारमुत्पलनालजम् ॥ ४४ ॥ पृथक्पृथक्तथाम्भोजरेणुश्यामामधुकजम् ॥
शाल्मलीके रसके सदृश और कफसे सहित, तथा ग्रंथिके सदृश कंठके मार्ग में गमन करनेवाले रक्तपित्तमें कमलकी नालसे उपजेहुये खारको शहद और घृतके संग चाटै ॥ ४४ ॥ कमलरेणुका मालविका निशोथ मुलहटीके खारोंके अलग अलग शहद और घृतके संग चाटै ॥ गुदागमे विशेषेण शोणिते बस्तिरिष्यते ॥ ४५ ॥
और गुदाके द्वारा गमन करनेवाले रक्तपित्तमें विशेष करके बस्तिकर्म करना चाहिये ! ४५ ॥ घ्राणगे रुधिरे शुद्धे नावनं चानुषेचयेत् ॥ कषाययोगान्पूर्वोक्तान्क्षीरेक्ष्वादिरसप्लुतान् ॥ ४६ ॥ क्षीरादीन्ससितांस्तोयं केवलं वा जलं हितम्॥रसोदाडिमपुष्पाणामाम्रोत्थः शाल्वलस्यवा॥४७॥ नासिकामें गमन करनेवाले शुद्धरूप रक्तपित्त में नस्यको देवे और दूध तथा ईखआदिके रसकरके भिगोयेहुये पूर्वोक्त कषाय के योगोंको देवे ॥ ४६ ॥ मिसरसिहित दूध आदि पदार्थ और मिश्रीसहित पानी अथवा केवल पानी और अनारके फूलोंका रस तथा आमके फूलों का रस • तथा हरीदूबका रस ये सब रक्तपित्तमें नस्य आदिके द्वारा हित हैं ॥ ४७ ॥
कल्पयेच्छीतवर्गं च प्रदेहाभ्यञ्जनादिषु ॥ ४८ ॥
लेप और मालिश आदिमें रक्तपित्तवालेके शीतलवर्गको कल्पित करे ॥ ४८॥ इति बेरीनिवासिवैद्य पंडित रविदत्तशास्त्रिकृताऽष्टांगहृदय संहिताभाषाटीकायां - चिकित्सास्थाने द्वितीयोऽध्यायः ॥ २ ॥
तृतीयोऽध्यायः ॥
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अथातः कासचिकित्सितं व्याख्यास्यामः । इसके अनंतर कास अर्थात् खांसी के चिकित्सितनामक अध्यायका व्याख्यान करेंगे। केवलानिलजं का स्नेहैरादावुपाचरेत् वातघ्नसिद्धैः स्निग्धैश्च पेयायूषरसादिभिः॥१॥लेहैर्धूमैस्तथाभ्यङ्गैःस्वेदसेकावगाहनैः॥ वस्तिभिर्वविङ्घातं सपित्तं तूर्ध्वभक्तिकैः ॥ २ ॥ घृतैः क्षीरैश्च सकफं जयेत्स्नेहविरेचनैः ॥
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