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(५०४)
अष्टाङ्गहृदयेऔर हरडै सुंठ नागरमोथा गुड करके बनाई गोलियोंको मुखमें धारण करै ।। १७३ ॥ सब प्रकारके श्वास और खासियोंमें अथवा अकेले बेहडेको मुखमें धारण करे और घृतमें भूना और खांडसे संयुक्त शाबरलोधके पत्तोंका कल्क ॥ १७४ ॥ अथवा ऐसीही पेया अथवा ऐसीही लप्तिका छर्दैि तृषा खांसी आमातिसारको नाशतीहै ।। . · कण्टकारीरसे सिद्धो मुद्गयूषःसुसंस्कृतः ॥
सगौरामलकःसाम्लःसर्वकासभिषग्जितम् ॥१७५॥ और कटेहलीके रसमें सिद्धकिया हींग और सेंधानमक आदिकरके संस्कृत किया तथा अम्ल रूप अनारदाना आदिकरके और अदरख सूंठ वृतआदिकरके संस्कृत किया मूंगोंका यूप सब खांसियोंमें परम औषध है ॥ १७५॥
वातप्तौषधनिःक्वाथे क्षीरं यूषानसानपि ॥
वैष्किरान्प्रातुदान्बैलान्दापयेत्क्षयकासिने ॥१७६॥ वातको नाशनेवाले औषधोंके क्वाथमें सिद्धकिये ध यूष वैष्किरसंज्ञक अर्थात् वत्तक लावा चचुंदरी कपिंजल तीतर मुरगा चिमणा चकोर इन आदिके मांसका रस और प्रतुद अर्थात् हारीतपक्षी बगला कबूतर सारस बडातोता परेवा खंजरीट कोकिल आदिके मांसोंका रस और बैल अर्थात् गोधा शशा सर्प मूसाआदि बिलमें रहनेवाले जीवोंका रस इन सबोंको क्षयकी खांसीवाले मनुष्यके अर्थ देवै ॥ १७६॥
क्षतकासे च ये धूमाः सानुपाना निदर्शिताः॥ क्षयकासेऽपि ते योज्या वक्ष्यन्ते ये च यक्ष्मणि ॥ १७७॥ बृंहणं दीपनं चाग्नेः स्रोतसां च विशोधनम् ॥ व्यत्यासाक्षयकासिभ्यो बल्यं सर्व प्रशस्यते ॥ १७८॥
जो धूएं क्षतकी खांसीमें अनुपानसहित कहेहैं और जो धूएं राजपक्ष्माके चिकित्सितमें कहेजायेंगे वे सब क्षयकी खांसीमें युक्तकरने योग्यहैं ॥ १७७ ।। बृंहण और अग्निका दीपन और स्रोतोंका शोधनद्रव्य क्षयकी खांसीवालोंके अर्थ देना योग्यहै, और व्यत्यासकरके सब प्रकारके बलमें हितरूप चिकित्सितभी क्षयकी खांसीवालोंके अर्थ श्रेष्ठ है ॥ १७८ ॥
सन्निपातोद्भवो घोरः क्षयकासी यतस्ततः॥
यथा दोषबलं तस्य सन्निपातहितं हितम् ॥ १७९ ॥ जिसकारणसे सन्निपातसे उपजे क्षयकी खांसी अत्यंत घोररूप है, तिसीकारणले दोष के बाल के अनुसार तिस खांसीको सन्निपातमें हित मानाहुआ पदार्थही हितहै ॥ १७९ ॥ इति बेरीनिवासिवैद्यपंडितरविदत्तशास्त्रिकृताऽष्टांगहृदयसंहिताभाषाटीकाय
चिकित्सितस्थाने तृतीयोऽध्यायः ॥३॥
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