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निदानस्थानं भाषाटीकासमेतम् । (४२९ ) .च स गतोऽवस्थामीदृशीं लभते न ना ॥५४॥ क्वचिच्छारतिग्रस्तो भूमिशय्यासनादिषु॥चेष्टमानस्ततःक्लिष्टोमनोदेहश्रमोद्भवाम् ॥५५॥ दुष्प्रबोधोऽश्नुते निद्रांसोऽग्निवीसर्पउच्यते॥ कफेन रुद्धःपवनो भित्त्वा तं बहुधा कफम्॥५६॥रक्तं वा वृद्धरक्तस्य त्वक्छिरास्तावमांसगम् ॥ दूषयित्वा च दीर्घाणुवृत्तस्थूलखरात्मनाम् ॥५७॥ ग्रन्थीनां कुरुते माला रक्तानां तीव्ररुग्ज्वराम ॥ श्वासकासातिसारास्यशोषहिध्मावभिभ्रमैः॥५८॥ मोहवैवर्ण्यमूर्छाङ्गभंगाग्निसदनैर्युतम् ॥ इत्ययं ग्रन्थिवीसर्पः कफमारुतकोपजः॥ ५९॥
और वातपित्तसे ज्वर, छर्दि, मूर्छा, अतिसार, तृषा, भ्रम, इन्होंकरके ॥ ५० ॥ अस्थिभेद, मंदाग्नि, तमक श्वास, आरोचकसे युक्तहुआ मनुष्य प्रज्वलितहुये अंगारकी तरह सकल शरीरको करता है ॥५१ ।। और जिस जिस शरीरके अंगको विसर्प रोग फैलता है वही वहीं अंग-शांतरूप अंगारके समान सफेदपनेसे रहित और नील अथवा रक्त शीघ्र होजाता है ॥ १२ ॥ पीछे अग्निदग्धकी तरह फोडोंसे व्याप्तहुआ और शीघ्रपनेसे वह विसर्प मर्ममें फैलनेवाला होजाता है, तब अत्यन्त बलवाला वायु ॥ ५३ ॥ शरीरको पीडित करता है और संज्ञाको हरता है और नींद, श्वास, हिचकीको प्रेरता है और इस अवस्थाको प्राप्त हुआ ॥ १४ ॥ अरतीसे ग्रस्त हुआ और पृथ्वी, शय्या, आसन आदिमें चेष्टा करताहुआ कहींभी सुखको नहीं प्राप्त होताहै, पीछे क्लिष्ट हुआ और दुःखकरके प्रबोधवाला वह पुरुष मन देह परिश्रम करके उपजी ॥५५॥ नींदको सेवता है, तिसको अग्निविसर्प कहते हैं, कफकरके रुका हुआ पवन तिसं कफको बहुतप्रकारसे भेदित • कर ॥ १६ ॥ अथवा बढेहुये रक्तवाला मनुष्यके त्वचा, नाडी, नस, मांस, इन्होंमें प्राप्तहुये रक्तको दुषितकर पीछे लंबी, सूक्ष्म, गोल, मोटी, तेजस्वभाववाली ॥ १७ ॥ रक्तवर्णवाली ग्रंथियोंकी तीव्र शूल और ज्वरसे संयुक्त मालाको करता है, तथा, श्वास, खांसी, अतिसार, मुखशोष, हिचकी, छार्द, भ्रम करके ॥ ५८ ॥ और मोह, वर्णका बदलजाना, मूर्छा, अंगभंग, मंदाग्निसे संयुक्त मालाको करता है, इसको ग्रंथिविसर्प कहते हैं, यह कफ और वातके कोपसे उपजता है ॥ ५९॥
कफपित्तज्वरः स्तम्भो निद्रातन्द्राशिरोरुजाः॥ अंगावसादविक्षेपप्रलापारोचकभ्रमा॥६०॥ मूर्छाग्निहानिर्भेदोऽस्थ्नां पिपासेन्द्रियगौरवम् ॥ आमोपवेशनं लेपः स्रोतसां स च सर्पति ॥६१ ॥प्रायेणामाशये गृहन्नेकदेशं न चातिरुक् ॥ पिटकैरव
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