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(४३४)
अष्टाङ्गहृदयेतारुणैः ॥ २७॥ विस्फोट पिटिकाः पामा कण्डक्लेदरुजाधिकाः॥सूक्ष्माः श्यावारुणा बह्वयः प्रायः स्फिक्पाणिकूपरे ॥२८॥ सस्फोटमस्पर्शसहं कण्डूयातोददाहवत् ॥ रक्तं दलचर्मदलं काकणं तीवदाहरुक्॥२९॥ पूर्ण रक्तश्च कृष्णश्च काकणन्ती
फलोपमम् ॥ कुष्ठलिङ्गैर्युतं सर्वनैकवर्णं ततो भवेत् ॥३०॥ ' और विस्तृत स्थानवाला पसीनेसे रहित, मछलीकी खण्डके समान कांतिवाला एकनामवाला कुष्ठ होताहै ॥ २० ॥ रूखा और किणकी समान करडे स्पर्शवाला, खाजबाला, कठोर कृष्ण किटिभकुष्ठ होता है बाहिरसे रूखा और भीतरसे चिकना और घिसनेमें किणकोंको फेंकनेवाला ॥ २१ ॥ कोमल स्पर्शवाला मिहीन, सफेद, तथा तांबेके समान वर्णवाला, तुंबीके फूलके समान कांतिवाला विशेष करके ऊपरके शरीरमें होनेवाला सिध्म कुष्ट अर्थात् सीपरोग होता है और खाज करके संयुक्त रक्त युक्त गंडोंसे व्याप्त अलसक कुष्ठ होता है ॥ २२ ॥ और हाथ पैरको विदारण करनेवाला तीव्र पीडासे संयुक्त मंद खाजवाला रागसहित फुनसियोंसे व्याप्त विपादिका कुष्ठ होता है ॥ २३ ॥ दूर्वाकी तरह लंबा फैलाहुआ और विष्णुकांताके फूलकी समान कांतिवाला ऊंचे मंडलसे संयुक्त खाजवाला आपसमें मिलकर शरीरमें फैलनेवाला दद्रु कुष्ठ होता है ॥ २४ ॥ स्थूल जडवाला दाहकी पीडासे संयुक्त रक्त और धूम्रवर्णवाला बहुतसे घाओंसे संयुक्त क्लेद और कीडोंसे संयुक्त विशेषकरके संधियोंमें उपजनेवाला शतारू कुष्ठहोता है ॥ २५ ॥ अंतमें रक्तरूप और मध्यमें पांडुरूप खाज दाह शूलसे अन्वित ऊंचा लालसूक्ष्मरेखाओं करके कमलके पत्ताकी तरह व्याप्त ॥ २६ ।। और विशेषताकरके कररी बहुतसी लसिका और रक्तसे संयुक्त और शीघ्र भेदितकरनेवाला पुंडरीक कुष्टहोताहै, सूक्ष्म खाजवाले सफेद और लाल फोडोंसे व्याप्त ॥ २७ ॥ विस्फोट कुष्ठ होताहै और खाज क्लेद शूलकी अधिकतावाली फुनसियोंसे संयुक्त पामनामवाला कुष्ठहोता है परंतु सूक्ष्म, धूम्र और लालवर्णकी और बहुतसी और विशेषता करके कूला हाथ कुहनीमें उपजनेवाली फुनसियोंसे युक्त पामा कुष्ट होताहै ॥ २८ ॥ फोडोंसे संयुक्त और स्पर्शको नहीं सहनेवाला और खाज अत्यंतदाह चभका दाहवाला और लालवर्णवाला तथा स्फुटितहुआ चर्मदल कुष्ठ होता है और तीवदाह और शूलसे संयुक्त ॥ २९ ॥ और पहिले रक्त तथा कृष्ण
और चिरमटीके समान उपमावाला और सब प्रकार के कुष्ठके लक्षणों करके संयुक्त और अनेक वर्णीवाला काकणकुष्ठ होता है ॥ ३० ॥
दोषभेदीयविहितैरादिशेल्लिङ्गकर्मभिः ॥ कुष्ठेषु दोषोल्बणता सर्वदोषोल्बणं त्यजेत् ॥३१॥ रिष्टोक्तं यच्च यच्चास्थिमज्जशुक्र समाश्रयम्॥ याप्यं मेदोगतं कृच्छ्रे पित्तद्वन्द्वानमांसगम्॥३२॥ अकृच्छ्रे कफवाताढ्यं त्वक्स्थमेकमलं च यत् ॥ तत्र त्वचि.
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