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(४६४)
अष्टाङ्गहृदयेदेहधात्वबलत्वाच्च ज्वरो जीर्णोऽनुवर्तते ॥ ८३ ॥ और देहधातु, वात, पित्त, कफके स्वल्पहोनेसे पुराना ज्वर घनेकालतक ठहरजाताहै ॥८॥ रूक्षं हि तेजो ज्वरकृत्तेजसा रूक्षितस्य च॥वमनस्वेदकालाम्बुकषायलघुभोजनैः।।८४॥ यः स्यादतिबलो धातुः सहचारी सदा गतिः॥ तस्य संशमनं सर्पिर्दीप्तस्येवाम्बु वेश्मनः॥८५॥ वातपित्तजितामय्यं संस्कारमनुरुध्यते ॥ सुतरां तद्धयतो दयाद्यथास्वौषधसाधितम् ॥ ८६ ॥
और रूखा तेज अर्थात् देहकी गरमाई और जठराग्नि होवे तो वह ज्वरकारक है सो तेजकरके रूखेपुरुषको वमन स्वेद, समयमें दिया हुआ जलका काथ हलके भोजन करके ॥ ८४ ॥ जो जठराग्निके साथ विचरनेवाला धातु और वायु अतिबलवाला होजावे तब तिसको शमन अर्थात् शांत करनेवाला घृत कहा है जैसे जलते हए मकानको जल ।। ८५॥ और जिनपुरुषोंके वात पित्त अधिकहोवे तिन्होंको वह उत्तम घृत गुणोंको देनेवाला है इसकारणसे उन २ रोगके अनुसार औषधोंमें सिद्ध कियाहुआ घृत निरंतर देना चाहिये ।। ८६ ॥
विपरीतं ज्वरोष्माणं जयेत्पित्तं च शैत्यतः ॥ स्नेहाद्वातं घृतं तुल्यं योगसंस्कारतः कफम्॥ ८७॥ पूर्वे कषायाः सघृताःसर्वे योज्या यथामलम् ॥ वह घृत विपरीतहुई ज्वरकी गरमाईको और पित्तको ठंढेपनसे हरताहै और स्नेह अर्थात् चिकनेपनसे वातको हरताहै और शैत्य, स्नेह, इन दोनों योगों करके कफको जीतताहै ॥ ८७ ।। पहले कहेहुए सब काथ मलोंके अनुसार, घृतकरके युक्त देने चाहिये ।।
त्रिफला पिचुमन्दत्वङ्मधुकं बृहतीद्वयम् ॥८॥
समसूरदलं काथः सघृतो ज्वरकासहा ॥ और त्रिफला, नींबकी छालि, मुलहटी, दोनों कटेहली ॥ ८८ ॥ मसूरकी दालका काथ घृत करके सहित दियाहुआ ज्वर और खांसीको नाश देताहै ॥
पिप्पलीन्द्रयवधावनितिक्तासारिवामलकतामलकीभिः॥ बिल्वमुस्तहिमपालतिसेव्यैर्द्राक्षयातिविषया स्थिरया च ॥८९॥ घृतमाश निहन्ति साधितं ज्वरमग्निं विषमं हलीमकम् ॥ अरुचिं भृशतापमंसयोर्वमथु पार्वशिरोरुजं क्षयम् ॥ ९०॥
और पीपल, इंद्रजव, कटेहली, कुटकी सारिवा, रूपामखी, आंवला बेलगिरी, गागरमोथा, लाल चंदन, पालकी, काला वाला, दाख, अतीश, सालपर्णी, ॥ ८९ ॥ इन्होंमें सिद्ध कियाडुआ
हि ॥
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