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चिकित्सास्थानं भाषाटीकासमेतम् । (४६५) घृत ज्वर, विषम अग्नि, हलीमक और अरुची, कंधोंका बहुतसा खेद, वमथु रोग पशली पीडा, शिरकी पीडा, क्षयीरोगकोभी नाशताहै ॥ ९॥
तैल्वकं पवनजन्मनि ज्वरे योजयेत्रिवृतया वियोजितम् ॥ तिक्तकं वृषघृतं च पैत्तिके यच्च पालनिकया शृतं हविः॥९१॥
और बातज्वरमें, वातव्याधिमें कहाहुआ तैल्वक वृतको निशोतकरके रहित देवे और तिक्तक घेत वांसामें सिद्ध कियाहुआ घृत,और त्रायमाण करके सिद्ध कियाहुआ घृत पित्तज्वरमें देनाहितहै ॥११॥
विडंगसौवर्चलचव्यपाठाव्योषाग्निसिन्धूद्भवयावशकैः ॥
पलांशकैः क्षीरसमं घृतस्य प्रस्थं पचेजीणकफज्वरघ्नम्॥९२॥ और बायबिडंग, कालानमक, चव्य, पाठा, सुंठ, मिरच, पीपल, चीता, सेंधानमक जवाखार इन्होंको चार चार तोल, लेबै, और इन्हों के बरावर दूध और ६४ तोले घृत चौगुनाजल इसप्रकार घृतको पकायै यह घृत जीर्णकफज्वरको नाशता है ।। ९२ ॥ .
गुडूच्या रसकल्काभ्यां त्रिफलाया वृषस्य च ॥
मृद्वीकाया बलायाश्च स्नेहाः सिद्धा ज्वरच्छिदः॥९३ ॥ गिलोयका रस और कल्ककरके अथवा त्रिफला बांसेका रस और कल्क करके और मुनक्का दाख, खरैह टीके रस करके अथवा कल्क करके सिद्ध किये हुए स्नेह ज्वरको दूर करते हैं ॥९३॥
जीर्णे धृते च भुञ्जीत मृदुमांसरसौदनम् ॥
बलं ह्यलं दोषहरं परं तच्च बलप्रदम् ॥ ९४ ॥ और जब घृत जीर्ण होजावे, तब मृदु मांस, रसौंदनका भोजन करै और पूर्ण बलहुये दोषोंको हरनेवाला है, और परमबलदायक है ॥ ९४ ॥
कफपित्तहरा मुद्गकारवेल्लादिजा रसाः॥९५॥ प्रायेण तस्मान्न हिता जीर्णे वातोत्तरे ज्वरे ॥ शूलोदावर्तविष्ठम्भजनना ज्वर वर्धनाः ॥ ९६ ॥
और गुंडी, करेला इत्यादिकोंके रस कफपित्तको हरनेवाले हैं ॥९५ ॥ इस कारण यह जीर्ण वातअधिक ज्वरमें हित नहीं है किंतु, शूल, उदावत, विष्टंभको पैदा करते हैं और ज्वरको बढाते हैं ॥ ९६ ॥
न शाम्यत्येवमपि चेज्ज्वर कुर्वीत शोधनम् ॥ शोधनार्हस्य वमन प्रागुक्तं तस्य योजयेत्॥९७॥आमाशयगते दोषे बलिनः पालयन्वलम्॥पक्के तु शिथिले दोषे ज्वरे वा विषमद्यजे ॥९॥
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