________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
(४५८)
अष्टाङ्गहृदयेश्नीयाभृष्टतण्डुलम् ॥ ३७ ॥ दकलावणिकैयूं रसैर्वा मुद्ग- लावजैः॥ इत्ययं षडहो नेयो बलं दोषं च रक्षता ॥ ३८॥
किन्तु तिन्होंमें ज्वरनाशक फलों करके और जल करके धानोंकी खीलका तर्पण अर्थात् सत्तु आदिको ॥ ३६ ॥ खांड और शहदसे युक्त पावै और जब वह तर्पण जीर्ण अर्थात् जरजावे, तब यवागूके पान योग्य मनुष्यके क्षुधा लगे तब भूने हुये चावलोंके ओदनको खावे ॥ ३७ ॥ मूंग, कुलथी, इत्यादिकोंके यूष करके और मूंग, तथा लावापक्षीक रस करके सहित ओदन भक्षण करे ऐसे बल दोषकी रक्षा करता हुआ पुरुषको छ:दिनतक वर्तना चाहिये ॥ ३८ ॥
ततः पक्केषु दोषेषु लंघनायैः प्रशस्यते ॥
कषायो दोषशेषस्य पाचनः शमनो यथा ॥ ३९ ॥ और जब लंघनादिको करके दोष पकजावे तब छः दिनके उपरान्त कषाय अर्थात् पाचन और शमनरूप काढा देना श्रेष्ठ है मोथा पित्तपापडा आदि विशेष कर पाचन है ॥ ३९ ॥
तिक्तः पित्ते विशेषेण प्रयोज्यः कटुकः कफे ॥ पित्तश्लेष्महरत्वेऽपि कषायस्तु न शस्यते॥४०॥नवज्वरे मलस्तम्भात्कषायो विषमज्वरम् ॥ कुरुतेऽरुचिहृल्लासहिध्माध्मानादिकानपि।४१॥
और पित्त विशेष होवे तो कडुआ और कफमें चर्चा काथ देना चाहिये और पित्त कफ हरने वाला होनेसेभी परंतु ॥ ४० ॥ नवीन ज्वरमें काथ देना श्रेष्ट नहीं कहा है क्योंकि मलके स्तंभ अर्थात् बंध होनेसे वह काथ विषमज्वर अरुचि हलास हिचकी अफाराको कर देताहै ॥ ४१ ।।
सप्ताहादौषधं केचिदाहुरन्ये दशाहतः ॥ केचिल्लध्वन्नभुक्तस्य योज्यमामोल्बणे न तु ॥ ४२ ॥ कैईक वैद्य सात दिनके उपरांत और कैईक दश दिनके उपरांत औषधी देनी कहते हैं कोई लघु अन्न पेयादि खाये हुए पुरुषको औषध देनी कहते हैं, परंतु आम उल्बण अर्थात् अधिक होवे तो नहीं ॥ ४२ ॥
तीव्रज्वरपरीतस्य दोषवेगोदये यतः ॥ दोषेऽथ वातिनिचिते तंद्रास्तैमित्यकारिणि॥४३॥अपच्यमानं भैषज्यं भूयो ज्वलयति ज्वरम् ॥ क्योंकि तीव्रज्वर करके युक्त पुरुषके दोषोंके वेगका उदय होनेसे अथवा आमादि दोषोंका अत्यंत संचय होनेसे वह औषध तंद्रा अंधेरीको करनेवाली हो जाती है ॥ ४३ ॥ क्योंकि जठरामिकरके विना पका हुआ औषध फिर ज्वरको करदेताहै ।।
For Private and Personal Use Only