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निदानस्थानं भाषाटीकासमेतम् । अत्यंत मधुर मूत्रको मूतता है ॥ ९ ॥ रात्रिमें स्थितहुआ जो करडा होजावे ऐसे मूत्रको सांद्रप्रमेहवाला मूतता है और सुराप्रमेहवाला मदिराके समान और ऊपरले भागमें पतला और , नीचके भागमें गाढा मूत्रको मूतता है ॥ १०॥ पिष्टप्रमेहकरके रोमांचवाला मनुष्य होके पीठीके सदृश और बहुतसा सफेदरंगसे संयुक्त मूत्रको मूतता है और शुक्रप्रमेहवाला वर्यिके समान कांतिवाला अथवा वीर्यसे मिलाहुआ मूतता है ॥ ११॥ और सिकता प्रमेहवाला वालुरेतरूप और मलरूप और मूत्रके किणकेको मूतता है और शीतप्रमेहवाला अत्यन्त बहुतसा और मधुर अत्यन्त शीतल मूतता है ॥ १२ ॥ शनैः प्रमेहवाला मन्द मन्द मूतता है और लालाप्रमेहकरके लालकी तांतोंसे संयुक्त और पिच्छिल मूत्रको मूतता है ॥ १३ ॥
गन्धवर्णरसस्पर्शः क्षारेण क्षारतोयवत् ॥ नीलमेहेन नीलाभं कालमेही मषीनिभम् ॥ १४॥ हारिद्रमेही कटुकं हरिद्रासनिभं महत् ॥ विस्त्रं माञ्जिष्ठमेहेन मञ्जिष्ठासलिलोपमम् ॥१५॥ विस्रमुष्णं सलवणं रक्ताभं रक्तमेहतः ॥ क्षारप्रमेहकरके गंध, वर्ण, रस, स्पर्श करके खारके पानीकी तरह मूतता है और नीलप्रमेह करके गन्ध, वर्ण, रसस्पर्श करके नलिकांतिवाले मूत्रको मूतता है और कालप्रमेहवाला श्याहीके समान मूत्रको मूतता है ॥ १४ ॥ हारिद्रप्रमेहवाला कडुआ और हलदीके समाम कांतिवाला और जलताहुआ मूतता है और मांजिष्ठप्रमेहवाला मंजीठके पानीके समान उपमावाले और कच्ची गन्धवाले मूत्रको मूतता है रक्तप्रमेहवाला ॥ १५ ॥ कच्चीगन्धसे संयुक्त और गरम और नमकसे संयुक्त और लाल कांतिवाला मूत्रको मूतता है ॥
वसामेही वसामिश्रं वसां वा मूत्रयेन्मुहुः॥ १६ ॥ मज्जानं मजमिश्रं वा मजमेही मुहुर्मुहुः॥ हस्ती मत्त इवाजस्रं मूत्रं वे. गविवर्जितम् ॥१७॥सलसीकं विबद्धं च हस्तिमेहीप्रमेहति॥ मधुमेही मधुसमं जायते स किल द्विधा ॥ १८॥ क्रुद्धे धातुक्षयादा यो दोषावृतपथेऽथवा ॥ आवृतो दोषलिङ्गानि सोनिमित्तं प्रदर्शयेत् ॥ १९ ॥ क्षीणः क्षणाक्षणात्पूर्णो भजते कृच्छ्रसाध्यताम् ॥
और वसाप्रमेहवाला वसासे मिलेहुये मूत्रको अथवा वसाको बारंबार मूतता है ॥ १६ ॥ मजप्रमेहवाला मज्जाको अथवा मज्जासे मिलेहुये मूत्रको बारंबार मूतता है और उन्मत्तहुए हाथी समान निरन्तर और वेगसे वार्जित ॥ १७ ॥ और लसीकासे सहित और विबद्ध मूत्रको हस्तिप्रमेहवाला मूतता है और मधुप्रमेहवाला शहदके समान मूत्रको मूतता है और वह मधुप्रमेह दो प्रकारका
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