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निदानस्थानं भाषाटीकासमेतम् ।
(४११) उपजती है।।१४॥और कुक्षिमें गुडगुड शब्द होताहै और अंडसंधियोंमें विद्रधी होवे तो दोनों सक्थियोंमें बन्धा पडजाता है और दोनों वृक्कस्थानोंमें विद्रधी होवे तो कटि और पृष्ठभागमें बन्धा पडजाता है ॥१५॥ और पशलियोंमें शूल उपजता है और गुदामें विद्रधी होवे तो अधोवात रुकजाती है, और तिन विद्रधियोंका कच्चापना और पकापना और विदग्धपना सूजनकी समान होता है॥१६॥ नाभेरूवं मुखात्पक्काः प्रस्रवन्त्यधरे गुदात्॥ उभाभ्यां नाभि
जो विद्यादोषं क्लेदाच्च विद्रधौ ॥ १७ ॥ यथास्वं व्रणवत्तत्र विवर्यः सन्निपातजः॥पक्को हृन्नाभिबस्तिस्थो भिन्नोऽन्तर्बहि रेव वा ॥ १८॥ पक्वश्चान्तःस्रवन्वकाक्षीणस्योपद्रवान्वितः॥
नाभिके ऊपर उत्पन्नहुई और पकी हुई मुखसे झिरती है, और नाभिके नीचे पकी हुई गुदासे झिरती है, और नाभिमें उपजीहुई विद्रधी गुदा और मुखसे झिरती है, और विद्रधीमें यथायोग्य व्रणकी तरह क्लेदसे दोषोंको जानै ॥ १७ ॥ तिन विद्रधियोंमें सन्निपातसे उपजी विद्रधी वर्जनके योग्य है, पक्कहुई और हृदय, नाभि बस्तिमें स्थित हुई भीतर अथवा बाहिर स्थितहुई ॥ १८ ॥
और भीतर पकहुई और मुखसे झिरतीहुई और क्षीणमनुष्यको हिचकी आदि उपद्रवोंसे समन्वित विद्रधी वर्जित है ॥
एवमेव स्तनशिराविवृताः प्राप्य योषिताम् ॥१९॥ सूतानां गभिणीनां वा सम्भवेच्छ्यथुर्घनः॥ स्तने सदुग्धे दुग्धे वा बाह्य विद्रधिलक्षणः ॥ २० ॥ नाडीनां सूक्ष्मवक्रत्वात्कन्यानान्तु
नजायते ॥ ऐसे ही सूतिका और गर्भवाली स्त्रियोंके विवृतहुई चूंचियोंकी नाडियां ॥ १९ ॥ दूधसे सहित अथवा दूधसे रहित चूंचीमें आक्रमित होके बाह्य विद्रधीके लक्षणोंवाला और करडा शोजा उपजता है ॥ २० ॥ नाडियोंके सूक्ष्म मुखपनेसे कन्याओंके यह नहीं उपजता है ॥ क्रुद्धो रुद्धगतिर्वायुः शोफशलकरश्चरन् ॥ २१॥ मुष्कौ वकण
तः प्राप्य फलकोशाभिवाहिनीः॥प्रपीड्य धमनीवृद्धिं करोति फलकोशयोः ॥२२॥ रुद्धगतिवाली सूजन शूलको करनेवाली और कुपितहुई विचरतीहुई वायु ॥ २१ ॥ अंडसंधिके देशसे दोनों वृषणोंमें प्राप्तहो फलकोशको चारोंतर्फसे बहनेवाली धमनियोंको प्रपीडितकर दोनों वृषणोंमें वृद्धिको करती है ॥ २२ ॥
दोषास्त्रमेदोमूत्रान्त्रैः सवृद्धिः सप्तधा गदः॥मूत्रान्त्रजावप्यनि लाद्धेतुभेदस्तु केवलम्॥२३॥वातपूर्णदृतिस्पर्शो रूक्षो वाताद
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