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निदानस्थानं भाषाटीकासमेतम् ।
(३७९)
अथवा कृमिरोग और हृद्रोग इन्होंके लक्षणोंकरके कीडोंसे उपजी छर्दिको कहै और हृदयका रोग पांच प्रकारका कहा है ॥ ३८ ॥
तेषां गुल्मनिदानोक्तैः समुत्थानैश्च सम्भवः ॥ वातेन शूल्यतेऽ त्यर्थं तुद्यते स्फुटतीव च ॥ ३९ ॥ भिद्यते शुष्यति स्तब्धं हृदयं शून्यता द्रवः ॥ अकस्मादीनता शोको भयं शब्दासहिष्णुता ॥ ४० ॥ वेपथुर्वेष्टनं मोहः श्वासरोधोऽल्पनिद्रता ॥ पित्तात्तृष्णा भ्रमो मूर्च्छा दाहः स्वेदोऽल्पकः क्लमः ॥ ४१ ॥ छर्दनं चाम्लपित्तस्य धूमकः पीतता ज्वरः ॥ श्लेष्मणा हृदयं स्तब्धं भारिकं साइम गर्भवत् ॥ ४२ ॥ कासाग्निसादनिष्ठीवनिद्रालस्यारुचिज्वराः ॥ सर्वलिङ्गस्त्रिभिर्दोषैः कृमिभिः श्यावनेत्रता ॥ ४३ ॥ तमः प्रवेशो हृह्रासः शोषः कण्डूः कफस्रुतिः ॥ हृदयं प्रततं चात्र क्रकचेनेव दार्यते ॥ ४४ ॥ चिकित्सेदामयं घोरं तं शीघ्रं शीघ्रकारिणम् ॥
गुल्मनिदानमें कहुये कारणोंकरके तिन हृद्रोगों की उत्पत्ति है और वायुकी अधिकतासे उपजे हृद्रोगकें हृदयमें अत्यन्त शूल चलता है और हृदयमें चमके चलते हैं और हृदय स्फुटितकी तरह होता है ॥ ३९ ॥ और भेदित होता है और सूखजाता है और स्तब्धरूप होजाता है और हृदयकी शून्यता और हृदयका झिरना होता है और आपही आप दनिपना, शोक, भय, शब्दको नहीं सहना ॥ ४० ॥ और कंप, वेष्टन, मोह, श्वासका रुकना, नींदकी अल्पता उपजती है, पित्तकरके उपजे हृद्रोगमें तृषा, भ्रम, मूर्च्छा, दाह, पसीना, मुखमें खट्टारसका स्वाद, ग्लानि ॥ ४१ ॥ अम्लपित्तकी छार्दै, धूमा, शरीर आदिका पीलापन, ज्वर उपजते हैं और कफकरके उपजे हृद्रोगमें कठोर, भारी भीतरको विद्यमान पत्थररूप गर्भकी तरह हृदय होजाता है ॥ ४२ ॥ और खांसी मंदाग्नि, थुकधुकी, नींद, आलस्य, अरुची, ज्वर, उपजते हैं और तीन दोषोंकर के सचिह्नवाला हृद्रोग होता है और कीडों करके उपजे हृद्रोग में धूम्रवर्णके नेत्र ॥ ४३ ॥ अंधेरे में प्रवेश, थुक - थुक, शोक, खाज, कफका झिरना और विस्तृत हुआ हृदयका करोतकी तरह दारुण होना होता है। ॥ ४४ ॥ इस शीघ्रकारी और घोररूप इस कृमिज हृदोगको शीघ्र चिकित्सित करे ||
वातात्पित्तात्कफात्तृष्णा सन्निपाताद्रसक्षयात् ॥ ४५ ॥ षष्ठी स्यादुपसर्गाच्च वातपित्ते तु कारणम् ॥ सर्वासु तत्प्रकोपो हि सौम्यधातु प्रशोषणात् ॥ ४६ ॥ सर्वदेहभ्रमोत्कम्पतापतृडदा
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