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निदानस्थानं भाषाटीकासमेतम् ।
(३६३)
चतुर्थको मले मेदोमजास्थ्यन्यतमस्थिते ॥ मज्जस्थ एवेत्यपरे प्रभाव स तु दर्शयेत् ॥ ७२ ॥ द्विधा कफेन जङ्घाभ्यां स पूर्वशिरसोनिलात्
मेद, मज्जा, हड्डी इन्होंमेंसे एक कोईसेमें स्थितहुये दोषमें चतुर्थक ज्वर उपजता है और अन्य वैद्य कहते हैं कि मजा में स्थितहुये दोषमें चतुर्थकज्वर उपजता है और एक दिन पीडितकरके और दो दिन छोड़ फिर ज्वरको उपजावे तिसको चतुर्थकज्वर कहते हैं वह चतुर्थकज्वर प्रभावको दो प्रकारसे दिखाता है ॥ ७२ ॥ कफकी अधिकता करके पहिले जंघाओं से उपजता है और वातकी अधिकताकर के पहिले शिरसे उपजता है ॥
अस्थिमज्जोभयगते चतुर्थकविपर्ययः ॥ ७३ ॥ for a ज्वरयति दिनमेकं तु मुञ्चति ॥
और हड्डी मज्जा इन दोनोंमें प्राप्तहुये देोषमें चतुर्थकसे विपरीतलक्षणोंवाला विषमज्वर होता है || ७३ || यह तीन प्रकारका है अर्थात् कदाचित् वातकी अधिकताकरके कदाचित् पित्तकी अधिकताकर के कदाचित् कफकी अधिकताकरके यह ज्वर दो दिन ज्वरको रहता है और एकदिन रिको छोड़ता है |
बलाबलेन दोषाणामन्नचेष्टादिजन्मना ॥ ७४ ॥ ज्वरः स्यान्मनसस्तद्वत्कर्मणश्च तदा तदा ॥ दोष दृष्यवहोरात्रप्रभृतीनां बलाज्ज्वरः ॥ ७५ ॥ मनसो विषयाणां च कालं तं तं प्रपद्यते ॥
और वातआदिदोषोंके अन्न और चेष्टाआदि करके उत्पत्ति है जिन्होंकी ऐसे बल और अबल करके ॥ ७४ ॥ सततआदि ज्वर होता है और मनसेभी दोषोंके बल और अबलकरके ज्वर होता. है और पूर्वोक्त कर्मसेभी दोषों के बल और अबलकरके ज्वर होता है और दोष, दूष्य, ऋतु अहोरात्र आदिके बलकरकेभी तब तब ज्वर होता है ॥ ७५ ॥ मनके बलकरके और शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध इन्होंके बलकरके ज्वर तिस तिस विशेषकालको प्राप्त होता है ॥
धातून्प्रक्षोभयन्दोषो मोक्षकाले विलीयते ॥ ७६ ॥ ततो नरः श्वसन्स्विद्यन्कू जन्वमति चेष्टते॥वेपते प्रलपत्युष्णैः शीतैश्चाङ्गहतप्रभः ॥ ७७ ॥ विसंज्ञो ज्वरवेगार्त्तः सक्रोध इव वीक्ष्यते ॥ सदोषशब्दं च शकृद्रवं सृजति वेगवत् ॥ ७८ ॥
और वातआदि दोष रसआदि धातुओंको क्षोभित करके ज्वर मोक्षकालमें आप लीन हो जाता है. ॥ ७६ ॥ तिस कारणसे श्वास लेताहुआ और रोमोंसे पसीनाको झिरताहुआ और अव्यक्त शब्दको करता हुआ छर्दिको करताहुआ और और भूमितथाशय्या आदिमें लोटताहुआ कांपता हुआ प्रलाप
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