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निदानस्थानं भाषाटीकासमेतम् ।। (३६१) दोष और कालमें बल तथा अबल इन्होंसे ज्वर पांच प्रकारका जानना ॥ १६ ॥ और प्रकारसे बहुतसे सन्निपात करके ज्वरका उपदेश करतेहैं और संतत, सतत, अन्येद्यु, तृतीयक, चतुर्थक ये ज्वरके भेद हैं ॥ १७ ॥
धातुमूत्रशकृद्वाहिस्रोतसां व्यापिनो मलाः ॥ तापयन्तस्तनुं सर्वां तुल्यदृष्यादिवर्धिताः॥५८॥ बलिनो गुरवःस्तब्धा वि
शेषेण रसाश्रिताः ॥ सन्ततं निष्प्रतिद्वन्द्वा ज्वरं कुर्युः सुदुः - सहम् ॥ ५९॥
धातु, मूत्र, विष्ठा इन्होंको बहनेवाले स्रोतोंमें व्याप्त हुये और सकल शरीरको तापित करतेहुये और तुल्यरूप दूष्यआदिकरके बढेहुये ॥५८ ॥ और बलवाले और भारे तथा गर्वित और विशेष करके रसधातुमें आश्रितहुये और प्रत्यनीकसे रहित वातआदिदोष दुस्सहरूप संततज्वरको करते हैं ॥ ५९॥
मलं ज्वरोष्मा धातून्वा स शीघ्रं क्षपयेत्ततः॥ सर्वाकारं रसादीना शुद्धयाऽशुद्धयापि वा क्रमात् ॥६० ॥ वातपित्तकफैः सप्तदशद्वादशवासरान् ॥प्रायोऽनुयाति मर्यादां मोक्षाय च वधाय च ॥६१॥ इत्यग्निवेशस्य मतं हारीतस्य पुनः स्मृतिः।। द्विगुणा सप्तमी यावन्नवम्येकादशी तथा॥६२॥ एषा त्रिदोष मर्यादा मोक्षाय च वधाय च ॥ ज्वरकी गरमाई मलको अथवा धातुओंको शीघ्र क्षपित करती है तब तिस धातुक्षपणसे रस आदि धातु, मूत्र, विष्टादोष आदि सब आकारको निःशेष कर पछि शुद्धि करके अथवा अशुद्धि करके क्रमसे ॥ ६० ॥ वात, पित्त, कफ इन्होंकरके सात, दश वा बारह दिनोंतक संततज्वर मर्यादाको प्राप्त होता है, और छोडनेके वा मारनेके अर्थ होता है ॥ ६१ ॥ यह अग्निवेशमुनिका मत है और हारीतमुनिका ऐसे स्मरण है कि चौदह तथा अठारह तथा बाईस इन दिनोंतक ॥ ६२ ॥ संततज्वर छोडनेके वा मारनेके अर्थ रहता है यही त्रिदोषकी मर्यादा है।
शुद्धयशुद्धौ ज्वरःकालं दीर्घमप्यनुवर्तते।६।कृशानां व्याधिमु- . क्तानां मिथ्याहारादिसेविनाम्॥अल्पोपि दोषोदृष्यादेलब्ध्वान्यतमतोबलम्॥६॥सपिपक्षो ज्वरंकुर्याद्विषमंक्षयवृद्धिभाक।
और शुद्धिकरके सहित अशुद्धि संततज्वर दीर्घकालतक रहता है ॥६३॥ कृश तथा व्याधिसे छूटेहुये और मिथ्याभोजनआदिको सेवित करतेहुये मनुष्यों के होनबलवाला अथवा महानबलवाला
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