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अष्टाङ्गहृदये- .
और बहिर्वेगवाले ज्वरमें शरीरके बाहिरही ताप रहता है इसी वास्ते वह ज्वर अत्यंत साध्य है ॥ ४९ ॥ वर्षा, शरद, वसंत इन तीन ऋतुओंमें क्रमसे वात पित्त कफ इन्होंकरके उपजा ज्वर प्राकृत कहाता है और इन्होंसे बिपरीतपनेकरके उपजा ज्वर वैकृत कहाता है यह कष्टसाध्य है और वातसे उपजा प्राकृत ज्वरभी कष्टसाध्य होता है ॥ ५० ॥ वर्षासु मारुतो दुष्टः पित्तश्लेष्मान्वितो ज्वरम् ॥ कुर्यात्पित्तं च शरदि तस्य चानुबलं कफः ॥५१॥ तत्प्रकृत्या विसर्गाच्च तत्र नानशनाद्भयम्॥कफो वसन्ते तमपि वातपित्तं भवेदनु॥५२॥ वर्षा ऋतुमें कुपितहुआ वायु पित्त और कफसे मिलके ज्वरको करता है और कुपितहुआ पित्त शरदऋतु प्राकृत ज्वरको करता है और तिस पित्तके शरदऋतुमें बलको बढानेवाला कफ होता है ।। ५१ ॥ तिन दोनोंके स्वभावकरके और सौम्यस्वभाव करके तिस प्राकृतज्वरमें लंघनसे भय नहीं होता और वसंतऋतुमें कुपित हुआ कफ ज्वरको करता है तिस कफके पश्चात् सहायकरनेवाले वात और पित्त रहते हैं ॥ ५२ ॥
बलवत्स्वल्पदोषेषु ज्वरः साध्योऽनुपद्रवः॥
सर्वथा विकृतिज्ञाने प्रागसाध्य उदाहृतः ॥ ५३ ॥ बलवाले और स्वल्पदोषोंवाले मनुष्योंमें कासआदि उपद्रवोंकरके रहित ज्वर साध्य होता है और जैसे जिस प्रकारके मनुष्यको जैसा ज्वर असाध्य होता है वह विकृतविज्ञानीय अध्यायमें प्रकाशित कियागया है ॥ ५३॥
ज्वरोपद्रवतीक्ष्णत्वमग्लानिर्बहुमूत्रता ॥ न प्रवृत्तिन विट जीर्णा न क्षुत्सामज्वराकृतिः ॥ ५४ ॥ ज्वरवेगोऽधिकं तृष्णा प्रलापः श्वसनं भ्रमः॥मलप्रवृत्तिरुत्क्लेशः पच्यमानस्य लक्षणम् ॥ ५५॥ जीर्णतामविपर्यासात्सप्तरात्रं च लघनात् ॥ ज्वरः पञ्चविधः प्रोक्तो मलकालबलाबलात् ॥ ५६ ॥ प्रायशः सन्निपातेन भूयसा तूपदिश्यते॥ सन्ततः सततोन्येास्तृतीयकचतुर्थकौ ॥ ५७॥ ज्वरके उपद्रवोंकी तीक्ष्णता हो और ग्लानि होवे नहीं और मूत्र बहुतबार आवे और विष्टाकी प्रवृत्ति नहीं होवे और जो विष्टा, निकसे तो कच्चाही निकसे और क्षुधा लगे नहीं ये सामज्वरके लक्षण हैं ॥ १४ ॥ अतिशयकरके ज्वरका के हो और तृषा, प्रलाप, श्वास, चम, मलकी प्रवृत्ति उक्लेश ये अत्यंत उपजै तब पच्यमान ज्वरके लक्षण जानना ॥६५॥ आमज्वरके लक्षणोंके विएरीतपनेसे ज्वरकी जीर्णता जाननी तथा सात रात्रिलंघनसे ज्वरकी जीर्णता जाननी और मल अर्थात्
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