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निदानस्थानं भाषाटीकासमेतम्। (३७५) जिज्ञासा काये बैभत्स्यदर्शनम्॥ स्त्रीमद्यमांसप्रियता घृणित्वं. मूर्द्धगुंठनम् ॥१०॥नखकेशातिवृद्धिश्च स्वप्ने चाभिभवो भवेत पतंगकृकलासाहिकपिश्वापदपक्षिभिः ॥११॥ केशास्थितुष भस्मादिराशौ समधिरोहणम् ॥ शून्यानां ग्रामदेशानां दर्शनं शुष्यतोंभसः ॥ १२॥ ज्योतिर्गिरीणां पततां ज्वलतां च मही रुहाम्॥ तिन साहसआदि कर्मोकरके बढा वायु पित्त और कफको सब तर्फसे बढाके और शरीरकी संधियों में प्रवेश कर और तिन संधियोंको और शिराओंको पीडित करताहुआ स्त्रोतोंके मुखोंको रोकके अथवा प्रसारित करके ऊपरको फैलताहुआ पीनसआदि रोगोंको उपजाता है और नीचेको फैलताहुआ विभ्रंश अथवा विट्शोकरोगको उपजाता है और तिरछा फैलताहुआ पशलीमें शूलको उपजाता है ॥ ५ ॥ तिस राजयक्ष्माके होनेमें उसका पूर्वरूप पीनस, अत्यंत छींक, प्रसेक, मुखको मधुरता, पेटकी अग्नि और देहकी शिथिलता ॥ ६ ॥ ७॥ टोकनी, अन्यवर्तन, अन्न, पान आदि शुद्धहुयोंमेंभी अशुद्धताका देखना और विशेषताकरके अन्न और पानमें माखी, तृण, वाल, आदिका पडना ॥ ८ ॥ थुकथुकी, छी, अरुची, भोजन करते बलका नाश और अपने हाथोंका देखना पैर तथा मुखपै शोजा और दोनों नेत्रोंमें अत्यंत सफेदपना ॥ ९ ॥ दोनों बाहुओंके प्रमाणकी जाननेकी इच्छा और सुंदर शरीरमेंभी भयका देखना और स्त्री, मदिरा, मांस इन्होंमें प्रियपना और दयापना और वस्त्रआदि करके माथेको आच्छादित करना ॥ १० ॥ और नख तथा बालोंका अत्यंत बढना और स्वप्नमें पतंग, किरलिया, सर्प, वानर, श्वापद, पक्षी आदिकरके तिरस्कार होना ॥ ११ ॥ और स्वप्नमें बाल, हड्डी, तुष, भस्म आदिकी समूहमें चढना और स्वप्नमें शून्य रूप ग्राम और देश, सूखतेहुए पानीका देखना ॥ १२ ॥ और पडतेहुये तारागणोंको और पर्वतोंका देखना और प्रज्वलितहुये वृक्षोंका देखना यह सब लक्षण राजयक्ष्माके पूर्वरूपके है ॥
पीनसश्वासकासांसमूर्द्धस्वररुजोऽरुचिः ॥१३॥ ऊर्ध्वविभ्रंश संशोषावधश्छर्दिश्च कोष्ठगे ॥ तिर्यस्थे पार्श्वरुग्दोषे संधिगे भवति ज्वरः॥१४॥रूपाण्येकादशैतानि जायते राजयक्ष्मिणः॥
और ऊर्ध स्थितहुये दोषमें पीनस, श्वास, खांसी, कंधाशूल, शिमें शूल स्वरमें पीडा, अरुची ये उपद्रव उपजते हैं ॥ १३ ॥ अधोगतदोषमें विभ्रंश और संशोष ये दो उपद्रव उपजते हैं और कोष्ठगतदोषमें छर्दी उपजती है और तिर्यग्दोषमें पशलीशूल उपजता है और संधिगतदोषमें ज्वर उपजता है ॥ १४ ॥ ऐसे राजयक्ष्मा वाले मनुष्यके ये एकादशरूप उपजते हैं ॥
तेषामुपद्रवान्विद्यात्कंठोद्धंसमुरोरुजम् ॥१५॥ जृम्भाङ्गमर्दनिष्ठीववह्निसादास्यतिताः ॥ तत्र वाताच्छिरःपार्श्वशूलमंसा
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