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( ३५८ )
अष्टाङ्गहृदये
दाहादिर्दुस्तरस्तयोः ॥ शीतादौ तत्र पित्तेन कफे स्यन्दितशोषिते ॥ ३६ ॥ शीते शान्तेऽम्लको मूर्च्छा मदस्तृष्णा च जायते ॥ दाहाद पुनरन्ते स्युस्तन्द्राष्ठीववमिमाः ॥ ३७ ॥
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अन्यभी सन्निपातसे उपजा ज्वर है जहां वातपित्तसे पृथक् स्थितहुआ पित्त त्वचामें अथवा कोष्ठ शरीरके बाहिर दाहको करता है अर्थात् त्वचामें स्थितहुआ पित्त शरीर के वाहिर अधिक दाहको करता है और कोष्ठमें स्थितहुआ पित्त शरीर के भीतर दाहको करता है ॥ ३५ ॥ तैसेही वात और कफ शीतको करते हैं तिन दोनों में दाहादि सन्निपात दुश्चिकित्स्य है और शीतादि सन्निपातमें पित्तकरके स्त्रावित और शोषित किये कफमें ॥ ३६ ॥ शीतकी शांति होनेपे शरीर के भीतर दाह मूर्च्छा, मद, तृषा, उपजते हैं और दाहादि सन्निपातके अन्तमें तन्द्रा, थुकधुकी, छर्दि, ग्लानि उपजते हैं ॥३७॥
आगन्तुरभिघाताभिषङ्गशापाभिचारतः ॥ चतुर्द्धाऽत्र क्षतच्छेददाहाद्यैरभिघातजः ॥ ३८ ॥ श्रमाच्च तस्मिन्पवनः प्रायो रक्तं प्रदूषयन् ॥ सव्यथाशोफवैपर्यं सरुजं कुरुते ज्वरम् ॥३९॥ अभिघात, अभिषंग, अभिशाप, अभिचार इन भेदोंसे आगंतुज्वर चार प्रकारका है इस आगंतुज्वर में क्षत, छेद, दाह इन आदिकरके अभिघातज ज्वर उपजता है ॥ ३८ ॥ और तिसी अभिघातजज्वरमें परिश्रमसे विशेषताकरके रक्तको दूषित करताहुआ वायु पीडा, शोजा, वर्णका बदलना, शूल इन्होंसे संयुक्त हुये ज्वरको करता है ॥ ३९ ॥
ग्रहावेशौषधिविषक्रोध भीशोककामजः ॥ अभिषङ्गाग्रहेणास्मिन्नकस्माद्वासरोदने ॥ ४० ॥ औषधीगन्धजे मूर्च्छा शिरोरुग्वेपथुः क्षवः ॥ विषान्सूच्छतिसारास्यश्यावतादाहहृनदाः। ॥ ४१ ॥ क्रोधात्कम्पः शिरोरुक्च प्रलापो भयशोकजे ॥ कामामोऽरुचिर्दाहो हीनिद्राधीधृतिक्षयः ॥ ४२ ॥
ग्रहआदिका आवेश, औषधी, विष, क्रोध, भय, शोक, काम इन्होंसे उपजा ज्वर अभिषंग उपजता है और ग्रह अर्थात् देव, दानवआदिके आवेशकरके जो ज्वर उपजता है तिसमें हँसना और रोदन होता है ॥ ४० ॥ औषधीके गन्धसे उपजे ज्वर में मूर्च्छा, शिरमें शूल, कम्प छींक उपजते हैं और विषसे उपजे ज्वर में मूर्च्छा, अतिसार, मुखका धूम्रपना, दाह हृद्रोग ये उपजते हैं ॥ ४१ ॥ क्रोधसे उपजे ज्वरमें कम्प, शिरका शूल ये उपजते हैं भय और शोकसे उपजे ज्वरमें प्रलाप उपजता है और कामसे उपजे ज्वर में भ्रम, अरुचि, दाह और लज्जा, नींद, बुद्धि, धैर्यका नाश उपजता है ॥ ४२ ॥
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