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मूत्रस्थानं भाषाटीकासमेतम् ।
(२२५) और बहुलरूप कर्णपालीकोभी इसीकरके वींधै और अतिमांसवाली कर्णपालीको वीधनेके अर्थ सूचीशस्त्रभी वांछित है, परंतु तीसरे भागमें छिद्रवाली और तीन अंगुलोंकी लंबाईसे संयुक्त और . कानको वाँधनेवाला सूचीयंत्र है ॥ २६ ॥
जलौकःक्षारदहनकाचोपलनखादयः॥
अलौहान्यनुशस्त्राणि तान्येवं च विकल्पयेत् ॥ २७ ॥ जोख खार अग्नि काच पत्थर नख आदि और लोहसे वर्जित अनुशस्त्रोंकोभी वैद्य कल्पित करै२७
अपराण्यपि यन्त्रादीन्युपयोगश्च यौगिकम् ॥
उत्पाट्यपाट्यसीव्यैषलेख्यप्रच्छन्नकुट्टनम् ॥ २८॥ और अन्ययंत्रआदिकोभी वैद्य कल्पित करै, परंतु उपयोगको और योगको अच्छीतरह जानके उत्पाट्य, सीव्य, एष्य, लेख्य,प्रच्छन्न, कुट्टन, उत्पाटनमें ऊर्ध्वनयन यंत्र, नखशस्त्र, पाटनमें वृद्धिपत्र, सेवनमें; सूची, लेखनमें; मंडलग्रह, भेदनमें एषणी, सूचीमुख वेधनमें; वेतसादि मथनमें; खजग्रहमें संदंश, दाहमें शलाकादि यंत्र लेना ।। २८ ॥
छेद्यं भेद्यं व्यधो मन्थो ग्रहो दाहश्च तक्रियाः॥
कुण्ठखण्डतनुस्थूलहस्वदीर्घत्ववक्रताः ॥२९॥ छेद्य, भेद्य, व्यध, मंथ, ग्रह, दाह ये सब तिन शस्त्रोंकी क्रिया हैं और कुंठ अर्थात् ठंढापना और खंड अर्थात् टूटाहुआ और तनू अर्थात् अतिसूक्ष्म और स्थूल अर्थात् मोटा हस्व अर्थात छोटा दीर्घत्व अर्थात् लंबापना और वक्रता अर्थात् टेढापना ॥२९॥
शस्त्राणां खरधारत्वमष्टौ दोषाः प्रकीर्तताः॥
छेदभेदनलेख्यार्थं शस्त्रं वृन्तफलान्तरे ॥ ३०॥ खरधारत्व अर्थात् तीक्ष्णधारपना ये आठ दोष शास्त्रोंमें कहे हैं और छेदन भेदन लेखनके अर्थ वृंतफलके मध्यभागमें शस्त्रको ॥ ३० ॥
तर्जनीमध्यमांगुष्ठेहीयात्सुसमाहितः॥
विस्रावणानि वृन्ताये तर्जन्यंगुष्ठकेन च ॥३१॥ तर्जनी मध्यमाअंगूठेसे सावधान हुआ वैद्य ग्रहण करै और विस्त्रावण करनेवाले शरार्यास्य आदि शस्त्रोंको तर्जनी और अँगूठेसे वृंतके अग्रभागमें ग्रहण करै ।। ३१ ॥
तलप्रच्छन्नवृत्ताग्रं ग्राह्यं त्रीहिमुखं मुखे॥
मूलेष्वाहरणार्थे तु क्रियासौकर्यतोऽपरम् ॥३२॥ हाथके तलवेकरके आच्छादित और गोल अग्रभागवाले व्रीहिमुखशस्त्रको मुखमें ग्रहण करे, और शेष रहे शस्त्रको क्रियाके सुकरपनेसे आहरण करनेके अर्थ मूलमें ग्रहण करै ॥ ३२॥ .
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