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सूत्रस्थानं भाषाटीकासमेतम् ।
(२३३) और दंतोंका पीडन, खांसी, गंड, आध्मानको आच्छादित करतेहुए इस मनुष्यके पृष्ठदेशमें बस्त्रको आवेष्टित करता हुआ ॥ २१ ॥
कन्धरायां परिक्षिप्य न्यस्यान्तर्वामतर्जनीम् ॥
एषोऽन्तर्मुखवर्जानां शिराणां यन्त्रणे विधिः॥ २२ ॥ मनुष्य यत्नको करै, अर्थात् ग्रीवा वस्त्रको प्राप्त कर और मध्यमें बांसी तर्जनीको स्थापित कर भीतरको मुखकरके वर्जित सिराओंके यंत्रणमें यह विधिहै ॥ २२ ॥
तथा मध्यमयांगुल्या वैद्योंऽगुष्ठविमुक्तया ॥
ताडयेदुत्थितां ज्ञात्वा स्पर्शागुष्ठप्रपीडनैः ॥२३॥ पीछे वैद्य अंगूठे करके वर्जित वामे हाथकी मध्यम अंगुलीकरके ताडित करै पीछे स्पर्श और अंगूठेके प्रपीडनसे उत्थित हुई सिराको जानके ॥ २३ ॥
कुठार्या लक्षयेन्मध्ये वामहस्तगृहीतया ॥
फलोदेशे सुनिष्कम्पं शिरां तद्वच्च मोक्षयेत् ॥ २४ ॥ फलोद्देशमें निष्कंप हो बामें हाथमें ग्रहणकी हुई कुठारीसे मध्यमें शिराको लक्षित करै और जैसे लक्षित करे तैसेही मोक्षित करै ॥ २४ ॥
ताडयन्पीडयेच्चैनां विध्येद्रीहिमुखेन तु ॥ ___ अंगुष्ठेनोन्नमय्याग्रे नासिकामुपनासिकाम् ॥ २५ ॥ फिर इस शिराको ताडित करता हुआ व्रीहिमुखशस्त्रकरके वींध और अंगूठा आदिकरके पीडित करे और अग्रभागमें नासिकाको अंगूठेकरके उन्नमित कर नासिकाके समीपमें स्थिनहुई सिराको वीवै ॥ २५ ॥
अभ्युन्नतविदष्टाग्रजिह्वास्याधस्तदाश्रयाम् ॥
यन्त्रयेत्स्तनयोरूवं ग्रीवाश्रितशिराव्यधे ॥ २६ ॥ आभिमुख्यकरके ऊपर तालुदेशमें प्राप्त और विशेषकरके दांतोंकरके दष्ट हुई अग्र जिह्वा संयुक्त जीभके नीचे आश्रयवाली सिराको वांधे, और ग्रीवाके आश्रित हुई सिराके बीधनेमें दोनों चूचि योंके ऊपर वस्त्रकरके वेष्टित करै ॥ २६ ॥
पाषाणगंर्भहस्तस्य जानुस्थे प्रसृते भुजे॥
कुक्षेरारभ्य मृदिते विध्येहद्धोर्ध्वपट्टके ॥२७॥ पत्थर हाथोंमें लिये घुटुवोपर हाथ फैलाये हुए मनुष्यके कुक्षिसे आरंभ कर मृदित हुए और। उर्वभागमें वस्त्र बंधनयुक्त प्रदेशमें बींधै ॥ २७॥
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