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(३५४)
... अष्टाङ्गहृदयेलनं बहिः॥ ४॥सह तेनाभिसर्पन्तस्तपन्तः सकलं वपुः॥ कुर्वन्तो गात्रमत्युष्णं ज्वरं निर्वर्त्तयन्ति ते ॥५॥ स्रोतोविबन्धात्प्रायेण ततः स्वेदो न जायते॥ वह ज्वर, वात, पित्त, कफ, वातपित्त, वातकफ, पित्तकफ, सन्निपात, आगंतु, इन भेदों करके आठ प्रकारका है और तिन आठ प्रकारवाले ज्वरोंमें अपने २ दूषणोंकरके दुष्टहुये वातआदि दोष ॥ ३ ॥ आमाशयमें प्रवेशकर पीछे अनुगत हुये वेही दोष स्रोतोंको आच्छादित कर और पक्तिस्थानसे जठराग्निको बाहिर निकास ॥ ४ ॥ पीछे तिसी अग्निके साथ फैलतेहुये और संपूर्ण शरीरको तपातेहुये और अत्यंत उष्णरूप अंगोंको करतेहुये वेही दोष ज्वरको उपजाते हैं ॥ ५ ॥ तब विशेषतासे स्रोतोंके विबंधकरके पसीना नहीं उपजता है ।
तस्य प्रायूपमालस्यमरतिर्गानगौरवम् ॥ ६ ॥ आस्यवैरस्यमरुचिर्ज़म्भा सास्त्राकुलाक्षता ॥ अङ्गमर्दोऽविपाकोऽल्पप्राणता बहुनिद्रता ॥ ७॥ रोमहर्षो विनमनं पिण्डिकोद्वेष्टनं क्लमः॥ हितोपदेशेष्वक्षान्तिःप्रीतिरम्लपटूषणे॥ ८ ॥ द्वेषः स्वादुषु भक्ष्येषु तथा बालेषु तृड्भृशम् ॥ शब्दाग्निशीतवाताम्बुच्छायोष्णेष्वनिमित्ततः॥९॥ इच्छा द्वेषश्च तदनु ज्वरस्य व्यक्तता भवेत् ॥ अब ज्वरके प्राग्रूपको कहते हैं-आलस्य, अरति, शरीरका भारीपना, मुखका विरसपना,अरुचि, जंभाई, ललाईकरके सहित और व्याकुल नेत्रोंका होजाना, अंगोंका टूटना, अन्नका नहीं पकना, बलका अल्पपना, अत्यंत नींदका आना ॥ ६ ॥ ७ ॥ रोमोंका खडा होजाना, अंगोंका नयजाना पीडियोंका उद्वेष्टन, ग्लानि ये उपजै और हितके उपदेशोंको नहीं सहना और खट्टा, सलोना, चर्चरे रसोंमें प्रीति ॥ ८॥ और स्वादु भोजनोंमें बैरभाव और बालकोंमें वैरभाव और अत्यंत तृषा और शब्द, अग्नि, शीतल वायु, शीतल पानी, छाया, गरम पदार्थ इन्होंमें कारणके विना ही||९|| इच्छा और वैरभाव ये सब ज्वरके पूर्वरूपके लक्षण हैं इसके पश्चात् ज्वरकी प्रकटता होती है ।
आगमापगमक्षोभमृदुतावेदनोष्मणाम् ॥१०॥ वैषम्यं तत्रतत्राङ्गे तास्ताःस्युर्वेदनाश्चलाः ॥ पादयोः सुप्तता स्तम्भः पिंण्डिकोद्वेष्टनं श्रमः ॥ ११॥ विश्लेष इव सन्धीनां साद ऊर्वोः कटीग्रहः ॥ पृष्टं क्षोदमिवाप्नोति निष्पीड्यत इवोदरम्॥१२॥ छिद्यन्त इव चास्थीनि पार्श्वगानि विशेषतः॥ हृदयस्य ग्रहस्तोदः प्राजनेनेव वक्षसः॥१३॥ स्कन्धयोमथनं बाह्वोर्भेदःपी
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