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शारीरस्थानं भाषोटाकासमेतम् ।
( ३४१ )
और नाभी, नासिका, मुख, बाल, रोम, नख, दांतके स्पर्श करनेवाले ॥ ८ ॥ और गुदा, पृष्ठभाग, चूंची, ग्रीवा, पेट, अनामिका, अंगुली, कपास, बुस, फलरहित धान्य, सीसा, हड्डी, खोपरी, मूसल, पत्थर ॥ ९ ॥ बुहारी, छाज, कपडेके अन्तका टुकड़ा, भस्म, कोइला, वस्त्रकी बत्ती, तुष, रस्सी, जूतीजोडा, तखर्डी, अथवा तोलनेका पात्र, फांसी टूटा हुआ और झिराहुआ ॥ १० ॥ इन सबों को स्पर्श करनेवाले, इनको पहिले दीखतेही रोगी के मरनेको कहते हुये जानना चाहिये अर्थात् इनके देखनेसे जाने कि रोगी अच्छा न होगा ।
तथार्द्धरात्रे मध्याह्ने सन्ध्ययोः पूर्ववासरे ॥ ११ ॥ षष्ठीचतु
नवमीराहुकेतदयादिषु ॥ भरणीकृत्तिकाऽश्लेषापूर्वाऽऽद्रीपैव्यनैर्ऋते ॥ १२ ॥ यस्मिंश्च दूते ब्रुवति वाक्यमातुरसंश्रयम् ॥ पश्येन्निमित्तमशुभं तं च नानुव्रजेद्भिषक् ॥ १३ ॥
और अर्धरात्रि तथा दुपहर में तथा दोनों संध्याओं में और पहिले दिनमें ॥ ११ ॥ और छठ, चौथ, नौर्मा, राहु-केतुका उदय अस्तआदिमें और भरणी, कृत्तिका, आश्लेषा, तीनों पूर्वा, आर्दा, मघा, गुल इन नक्षत्रों में प्राप्तहुये दूत अशुभ कहे हैं ॥ १२ ॥ रोगी में प्रतिबंध वाक्यको कहते हुये जिस दूतमें अशुभ निमित्तको वैद्य देखे तो तिस दूतके संग गमन नहीं करै || १३ |
तद्यथा विकलः प्रेतः प्रेतालङ्कार एव वा ॥ छिन्नं दग्धं विनष्टं वा तद्वादीनि वचांसि वा ॥ १४ ॥ रसो वा कटुकस्तीत्रो गन्धो वा कौणपो महान् ॥ स्पर्शो वा विपुलः क्रूरो यद्वान्यदपि तादृ शम् ॥ १५ ॥ तत्सर्वमभितो वाक्यं वाक्यकालेऽथ वा पुनः ॥
हृतमभ्यागतं दृष्ट्वा नातुरं तमुपाचरेत् ॥ १६ ॥
सो दिखाते हैं अंगोंसे हीन अर्थात् काणा, अंधा आदि शब्दों का कहना और मरगया और मराहुआके गहने वस्त्रआदि छिन्न अर्थात् टूटे • रज्जुआदि दग्ध और विनष्टको कहनेवाले बचन ॥१४॥ अत्यन्त कडुआ रस और अत्यन्त बडा दुर्गंध अथवा विपुल और क्रूर स्पर्श अथवा तादृश अर्थात् तैसेही अन्यमी ॥ १५ ॥ बोलने के कालमें चारों तर्फसे वचन निकासै तब सन्मुख प्राप्त हुये दूतको देख वैद्य रोगीकी चिकित्सा करें नहीं ॥ १६ ॥ हाहाऋन्दितमुत्कुष्टं रुदितं स्खलनं क्षुतम् ॥ वस्त्रातपत्रपाद -
व्यसनं व्यसनेक्षणम् ॥ १७ ॥ चैत्यध्वजानां पात्राणां पर्णानां च निमजनम् ॥ हतानिष्टप्रवादाश्च दूषणं भस्मपांसुभिः ॥ १८ ॥ पथश्छेदोऽहि मार्जारगोधासरठवानरैः ॥ दीतां
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