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(२८४)
अष्टाङ्गहृदये- . शृतेन शालिकाकोलीद्विबलामधुकेक्षुभिः ॥
पयसा रक्तशाल्यन्नमद्यात्समधुशर्करम् ॥५॥ रसवालीईख, काकोली दोनों खरेहटी मुलहटी, ईख इन्होंमें सिद्ध किये दूरके संग शहद और खांडसे संयुक्त रक्तशालीचावलको खावै ॥ ५ ॥
रसैर्वा जाङलैः शुद्धिवर्ज चास्रोक्तमाचरेत् ॥ .
असम्पूर्णत्रिमासायाः प्रत्याख्याय प्रसाधयेत् ॥६॥ अथवा जांगलदेशके मांसोंके रसोंको संग खावै, अथवा वमनविरेचनकरके वर्जित रक्तपित्तकी विधिकरके आचरित करै, और तीन महीनोंसे कम गर्भवाली स्त्रीको प्रत्याख्यान अर्थात् असाध्य कहके प्रसाधित करै और आमकरके अनुगत फूल दीखे तोभी प्रत्याख्यान विशेष यत्न करके साधित करै ।। ६ ॥
आमान्वये च तत्रेष्टं शीतं रूक्षोपसहितम् ॥
उपवासो घनोशीरगुडूच्यरलुधान्यकाः॥७॥ आमयुक्त रक्तमें रूखेपनेकरके उपसहित शीतल पदार्थ इष्ट है तथा व्रतको करनाभी हित है और नागरमोथा, खश, गिलोय स्योनापाठा, धनियां, ॥ ७ ॥
दुरालभापर्पटकचन्दनातिविषाबलाः ॥
कथिताः सलिले पानं तृणधान्यादिभोजनम् ॥८॥ धमासा, पित्तपापडा, चंदन, अतीस, खरैहटी इन्होंका पानीमें क्वाथ बना पान करै और तृण अन्नोंका भोजन करै ॥ ८॥
मुद्गादियूषैरामे तु जिते स्निग्धादि पूर्ववत् ॥
गर्भे निपतिते तीक्ष्णं मद्यं सामर्थ्यतः पिबेत् ॥९॥ मूंगआदिके यूषों करके आमको जीतनेके पश्चात् स्निग्धआदि कर्म पहिलेकी तरह करे, जो गर्भिणीका गर्भ पतित होजावे तो वह गर्भिणी तीक्ष्ण मदिराको अपनी सामर्थ्यसे पीवै ॥ ९॥
गर्भकोष्ठाविशुद्धयर्थमतिविस्मरणाय च ॥
लघुना पञ्चमूलेन रूक्षां पेयां ततः पिबेत् ॥ १० ॥ गर्भकोष्ठकी शुद्धिके अर्थ और पीडाको भूलनेके अर्थ पीछे छोटे पंचमूलकरके संयुक्त रूखी पेयाको पीवै ॥ १० ॥
पेयाममद्यपा कल्के साधितां पाञ्चकौलिके॥ बिल्वादिपञ्चकक्काथे तिलोदालकतण्डुलैः॥११॥
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